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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
परित्याग" का आदर्श सभी आत्मवादी परम्पराओ में रहा है और उसकी आधार भूमि है—संन्यास । गृहवास की अपूर्णता से संन्यास का, भुक्ति की अपूर्णता से मुक्ति का, कर्म की अपूर्णता से ज्ञान का, स्वर्ग की अपूर्णता से अपवर्ग का और प्रवृत्ति की अपूर्णता से निवृत्ति का महत्त्व बढ़ा । ये भुक्ति आदि जीवन के अवश्यम्भावी अंग हैं और मुक्ति आदि लक्ष्य—इसी विवेक के सहारे भारतीय आदर्शों की समानान्तर रेखाएं निर्मित हुई हैं ।