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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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अनुसार कोरे ज्ञानवादी जो कहते हैं, किन्तु करते नही, वे अपने आपको केवल वाणी के द्वारा आश्वासन देते हैं ८७ ।
“सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः " - "यह जैनां का सर्व विदित वाक्य है । कर्म का नाश मोक्ष में होता है या मुक्त होने के आसपास । इससे पहले कर्म को रोका ही नहीं जा सकता । कर्म प्रत्येक व्यक्ति में होता है । भेद यह रहता है कि कौन किस दशा में उसे लगता है और कौन किस कर्म को हेय और किसे उपादेय मानता है ।
श्रमण परम्परा के दो पक्ष हैं—–गृहस्थ और श्रमण | गृहस्थ जीवन के पक्ष दो होते हैं - लौकिक और लोकोत्तर । श्रमण जीवन का पक्ष केवल लोकोत्तर होता है । श्रमण परम्परा के आचार्य लौकिक कर्म को लोकोत्तर कर्म की भांति एक रूप और अपरिवर्तनशील नही मानते । इसलिए उन्होने गृहस्थ के लिए भी केवल लोकोत्तर कर्मों का विधान किया है, श्रमणो के लिए तो ऐसा है ही ।
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गृहस्थ अपने लौकिक पक्ष की उपेक्षा कर ही कैसे सकते हैं और वे ऐसा कर नही सकते, इसी दृष्टि से उनके लिए व्रतो का विधान किया गया, जबकि श्रमणों के लिए महाव्रतो की व्यवस्था हुई ।
श्रमण कुछ एक ही हो सकते हैं। समाज का बड़ा भाग गृहस्थ जीवन विताता है । गृहस्थ के लौकिक पक्ष में- " कौन सा कर्म उचित है और कौन सा अनुचित " ' – इसका निर्णय देने का अधिकार समाज-शास्त्र को है, मोक्ष-शास्त्र को नहीं । मोक्ष-साधना की दृष्टि से कर्म और कर्म की परिभाषा यह है— 'कोई कर्म को वीर्य कहते हैं और कोई अकर्म को । सभी मनुष्य इन्ही दोनो से घिरे हुए हैं । प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म —– “पमायं कम्ममाइंसु, अप्पमायं तहावरं ९ 1
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प्रमाद को वाल-वीर्य और अप्रमाद को पंडित वीर्य कहा जाता है | जितना संयम है, वह सब वाल-वीर्य या सकर्म-वीर्य है और जितना संयम है, सब पंडित-त्रीर्य या अकर्म - वीर्य है ९० । जो अबुद्ध है, असम्यक दर्शी है, और
संयमी है, उसका पराक्रम — प्रमाद - वीर्य बन्धन कारक होता है" १ } और जो बुद्ध है, सम्यक-दर्शी है और संयमी है उनका पराक्रम -- अप्रमाद-वीर्य मुक्तिकारक होता है " २ | मोक्ष - साधना की दृष्टि से गृहस्थ और श्रमण – दोनो के