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जैन दर्शन में आचार मोमासा
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मुनि-जीवन की योग्यता उन्हीं मे आती है, जिनमें तीव्र वैराग्य का उदय हो जाए। ___ ब्राह्मण-वेपधारी इन्द्र ने राजर्पि नमि से कहा-"राजर्षि ! गृहवास घोर
आश्रम है। तुम इसे छोड़ दूसरे आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नही । तुम यही रहो और यही धर्म-पोपक कार्य करो।
नमि राजर्पि बोले-वाहाण ! मास-मास का उपवास करनेवाला और पारणा में कुश की नोक टिके उतना स्वल्प आहार खाने वाला गृहस्थ मुनिधर्म की सोलहवी कला की तुलना में भी नहीं आता।
जिसे शाश्वत घर में विश्वास नही, वही नश्वर घर का निर्माण करता है ।
यही है तीव्र वैराग्य । मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से विचार न हो, तव गृहवास ही सब कुछ है। उस दृष्टि से विचार किया जाए, तब आत्म-साक्षात्कार ही सब कुछ है । गृहवास और गृहत्याग का आधार है-आत्म-विकास का तारतम्य । गौतम ने पूछा-भगवन् ! गृहवास असार है और गृह-त्याग सारयह जानकर भला घर में कौन रहे ? भगवान् ने कहा-गौतम ! जो प्रमत्त हो वही रहे और कौन रहे८४ ।
किन्तु यह ध्यान रहे, श्रमण-परम्परा वेप को महत्त्व देती भी है और नहीं भी। साधना के अनुकूल वातावरण भी चाहिए-इम दृष्टि से वेप-परिवर्तन गृहवाम का त्याग ग्रादि-आदि बाहरी वातावरण की विशुद्धि का भी महत्त्व है। आन्तरिक विशुद्धि का उत्कृष्ट उदय होने पर गृहस्थ या किसी के भी वेप में आत्मा मुक्त हो सकता है.५ ।
मुक्ति-वेप या बाहरी वातावरण के कृत्रिम परिवर्तन से नही होती, किन्तु आत्मिक उदय से होती है। आत्मा का सहज उदय किसी विरल व्यक्ति में ही होता है। उसे सामान्य मार्ग नहीं माना जा सकता। सामान्य मार्ग यह है कि मुमुक्षु व्यक्ति अभ्यास करते-करते मुक्ति लाभ करते हैं। अभ्यास के क्रमिक विकास के लिए बाहरी वातावरण को उसके अनुकूल वनाना आवश्यक है। साधना अाखिर मार्ग है, प्राप्ति नहीं। मार्ग में चलने वाला भटक भी सकता है। जैन-आगमो और बौद्ध-पिटको में ऐसा यत्न किया गया है, जिससे