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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[१०७ ममन्वयकी भाषा में वैदिक परम्परा जीवन का व्यवहार-पक्ष है और श्रमणपरम्परा जीवन का लोकोत्तर पक्ष ।
वैदिको व्यवहर्तव्यः, कर्तव्यः पुनराहतः। लक्ष्य की उपलब्धि उसी के अनुरूप साधना से हो सकती है। प्रात्मा शरीर, वापी और मन से परे है और न उन द्वारा प्राप्य है०५।।
मुक्त अात्मा और ब्रह्म के शुद्ध स्प की मान्यता में दोनो परम्पराएँ लगभग एक मत हैं । कर्म या प्रवृत्ति शरीर, वाणी और मन का कार्य है। इनसे परे जो है, वह निष्कर्म है। श्रामण्य या संन्यास का मतलब है--निष्कर्म-भाव की साधना। इनीका नाम है संयम । पहले चरण में कर्म-मुक्ति नहीं होती। किन्तु संयम का अर्थ है कर्म-मुक्ति के संकल्प से चल कर्म-मुक्ति तक पहुंच जाना, निर्वाण पा लेना।
प्रवर्तक-धर्म के अनुमार वर्ग तीन ही ये-धर्म, काम और अर्थ। चतुर्वर्ग की मान्यता निवर्तक धर्म की देन है। निवर्तक-धर्म के प्रभाव से मोक्ष की मान्यता व्यापक वनी। अाश्रम की व्यवस्था में भी विकल्प अा गया, जिसके स्पष्ट निर्देश हमें जाबालोपनिपद्, गौतम धर्म-सूत्र आदि में मिलते हैं ब्रह्मचर्य पूरा करके गृही बनना, गृह में से बनी (वानप्रस्थ ) होकर प्रव्रज्या-संन्यास लेना, अथवा ब्रह्मचर्याश्रम से ही गृहस्थाश्रम या वानप्रस्थाश्रम से ही प्रवर्ध्या लेना। जिम दिन वैराग्य उत्पन्न हो जाए, उसी दिन प्रवा लेना।
पं० सुखलाल जी ने अश्रम-विकास की मान्यता के बारे में लिखा है'जान पड़ता है, इस देश में जब प्रवर्तक धर्मानुयायी वैदिक आर्य पहले पहल
आये, तब भी कहीं न कहीं इस देश में निवर्त्तक धर्म एक या दूसरे रूप में प्रचलित था। शुरू में इन दो धर्म-संस्थात्रों के विचारों में पर्याप्त संघर्प रहा, पर निवर्तक-धर्म के इने-गिने सच्चे अनुगामियों की तपस्या, ध्यान-प्रणाली और असंगचर्या का साधारण जनता पर जो प्रभाव धीरे-धीरे पड़ रहा था, उसने प्रवर्तक धर्म के कुछ अनुगामियों को भी अपनी ओर खींचा और निवर्त्तक-धर्म की संस्थात्रो का अनेक रूप में विकास होना शुरू हुआ। इसका प्रभावशाली फल अन्त में यह हुआ कि प्रवर्तक धर्म के आधारभूत जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो आश्रम माने जाते थे, उनके स्थान में प्रवर्तक-धर्म के पुरस्कर्ताओंने पहले तो,