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जैन दर्शन में आचार मौमासा [१०५ या नहीं होगा ? मैं कौन हूँ, पहले कौन था ? यहाँ से मरकर कहाँ होऊँगा”७३।
श्रमण-परम्परा इन शाश्वत प्रश्नो के समाधान पर ही अवस्थित हुई। यही कारण है कि वह सदा से आत्मदर्शी रही है। देह के पालन की उपेक्षा सम्भव नहीं, किन्तु उसका दृष्टिकोण देह-लक्षी नहीं रहा है। कहा जाता हैश्रमण-परम्परा ने समाज-रचना के बारे में कुछ सोचा ही नहीं। इसमें कुछ तथ्य भी है । भगवान् ऋपमदेव ने पहले समाज-रचना की और फिर वे आत्म-साधना मे लगे। भारतीय-जीवन के विकास-क्रम में उनकी देन बहुत ही महत्त्वपूर्ण
और बहुत ही प्रारम्भिक है। जिसका उल्लेख वैदिक और जैन-दोनो परम्परात्री मे प्रचुरता से मिलता है। प्राचार्य हेमचन्द्र, सोमदेव सूरि आदि के अर्हन्नीति, नीतिवाक्यामृत आदि ग्रन्थ समाज-व्यवस्था के सुन्दर ग्रन्थ हैं। यह सच भी है-जैन-बौद्ध मनीषियों ने जितना अध्यात्म पर लिखा, उसका शतांश भी समाज-व्यवस्था के बारे में नहीं लिखा। इसके कारण भी हैंश्रमण-परम्परा का विकास आत्म-लक्षी दृष्टिकोण के आधार पर हुआ है। निर्वाण-प्राप्ति के लिए शाश्वत-सत्यों की व्याख्या में ही उन्होंने अपने आपको खपाया। समाज-व्यवस्था को वे धर्म से जोड़ना नहीं चाहते थे। धर्म जो
आत्म-गुण है, को परिवर्तनशील समाज-व्यवस्था से जकड़ देने परं तो उसका ध्रुव रूप विकृत हो जाता है।
समाज-व्यवस्था का कार्य समाज-शास्त्रियों के लिए ही है। धार्मिको को उनके क्षेत्र में हस्तक्षेप नही करना चाहिए। मनुस्मृति आदि समाज-व्यवस्था के शास्त्र हैं। वे विधि-ग्रन्थ है, मोक्ष-ग्रन्थ नही ? इन विधि-ग्रन्थो को शाश्वत रूप मिला, वह आज स्वयं प्रश्न-चिह्न बन रहा है। हिन्दू कोडविल का विरोध इसीलिए हुआ कि उन परिवर्तनशील विधियो को शाश्वत सत्य का सा रूप मिल गया था श्रमण-परम्परा ने न तो विवाह आदि संस्कारो के अपरिवर्तित रूप का आग्रह रखा और न उन्हें शेष समाज से अलग बनाये रखने का आग्रह ही किया।
सोमदेव सूरि के अनुसार जैनों की वह सारी लौकिक विधि प्रमाण है, जिससे सम्यक् दर्शन में वाधा न आये, व्रतो में दोप न लगे :