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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[९३ चौथी प्रतिमा में अष्टमी, चतुर्दशी अमावस्या और पूर्णमासी को प्रतिपूर्ण पौपध-व्रत का पालन करना ।
पॉचवी प्रतिमा में (१) स्नान नहीं करना (२) रात्रि-भोजन नहीं करना (३) धोती की लांग नहीं देना (४) दिन में ब्रह्मचारी रहना (५) रात्रि में मेथुन का परिमाण करना।
छठी प्रतिमा में सर्वथा शील पालना। सातवी प्रतिमा मे सचित्त-आहार का परित्याग करना।
आठवी प्रतिमा में स्वयं प्रारम्भ-समारम्भ न करना। नौवी प्रतिमा मे नौकर-चाकर आदि से आरम्भ समारम्भ न कराना।
दशवी प्रतिमा में उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करना, वालो का तुर से मुण्डन करना अथवा शिखा धारण करना, घर सम्बन्धी प्रश्न करने पर मैं जानता हूँ या नही', इन दो वाक्यो से ज्यादा नही चोलना।। ___ग्यारहवीं प्रतिमा में तुर से मुण्डन करना अथवा लुञ्चन करना और साधु का प्राचार, भण्डोपकरण एवं वेश धारण करना। केवल ज्ञाति-वर्ग से ही उसका प्रेम-बन्धन नहीं टूटता, इसलिए भिक्षा के लिए केवल ज्ञातिजनो में ही जाना।
(५) प्रमत्त मुनि-यह पाँचवा स्तर है। यह सामाजिक जीवन से पृथक केवल साधना का जीवन है।
(६) अप्रमत्त-मुनि-यह छठा स्तर है। प्रमत्त-मुनि साधना में स्खलित भी हो जाता है किन्तु अप्रमत्त मुनि कभी स्खलित नही होता। अप्रमाद-दशा में वीतराग भाव आता है, केवल-ज्ञान होता है ।
(७) अयोगी-यह सातवॉ स्तर है । इससे आत्मा मुक्त होता है।
इस प्रकार साधना के विभिन्न स्तर हैं। इनके अधिकारियो की योग्यता भी विभिन्न होती है। योग्यता की कसौटी वैराग्य भावना या निर्मोह मनोदशा है। उसकी तरतमता के अनुसार ही साधना का आलम्बन लिया जाता है । हिंसा हेय है-यह जानते हुए भी उसे सब नही छोड़ सकते। साधना के तीसरे स्तर में हिंसा का आंशिक त्याग होता है। हिंसा के निम्न प्रकार