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हमारे नैतिक पतन के कारण श्राज वनस्पति घी भी अपने असली रूप में नहीं मिलता। उसमें भी अनेक प्रकार की मिलावटें की जा रही है। बड़े अफसोस की बात तो यह है कि ऐसे अपवित्र और हानिकारक पदार्थ का व्यवहार हमारे समाज में भी प्रचुर मात्रा में हो रहा है । हम विवाहादि के अवसर पर बीसियों हजार रुपया व्यय तो करते हैं परन्तु भोजन खिलाते है वनस्पति घी का । यह प्रचलन निन्दनीय है और यह बिलकुल बन्द होना चाहिये । प्रगर हमारी सामर्थ्य अधिक धन व्यय करने की न हो तो दावत में आदमियों की संख्या कम कर देनी चाहिये, किन्तु भोजन तो शुद्ध घी का बना हुआ ही होना चाहिये, जैसा कि कुछ वर्षो पूर्व होता रहा है ।
देहरादून के प्रसिद्ध रमायन शास्त्र के प्रोफेसर डा. के. डी. न जै(Dr. K. D. Jain) अपने लेख एनेलेमिस ग्रॉफ वनस्पति घी प्रोबलम ( Analysis of Vanaspati Ghee problem) में लिखते हैं कि वनस्पति घी के प्रयोग से अनेक प्रकार के चर्म रोग और विटामिनों के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले रोग पैदा हो जाते हैं । यदि हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र जिन्दा रहे और फले पूले तो वनस्पति घी का प्रयोग सरकार को कानून द्वारा तुरन्त बन्द कर देना चाहिये ।
(Immediate Prohibition and ban on the consumption of hydrogenated oils or food is the greatest necessity for the nation to live and flourish )