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कुछ मोड़ आये और संकलित साहित्य उससे अप्रभावित नहीं रह सका । समकालीन अथवा उत्तर कालीन घटनाओं के समावेश में भी कोई एकमत नहीं रह सका । किसी ने सहमति दी और कोई उसकी स्थिति से सहमत नहीं हो सका । फलतः पाठान्तरों और मतमतान्तरों का जन्म हुआ। भाषा और सिद्धान्तों के विकास की यही अमिट कहानी है। समूचे प्राकृत साहित्य का सर्वेक्षण करने पर यही तथ्य सामने आता है।
वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य २५०० वर्ष से पूर्व का ही माना जा सकता। परन्तु उसके पूर्व अलिखित रूप में आगमिक साहि-य-परम्परा विद्यमान अवश्य रही होगी। प्राकृत भाषा का अधिकांश साहित्य जैनधर्म और संस्कृति से संबद्ध है। उसकी मूल परम्परा श्रुत, आर्ष अथवा आगम के नाम से व्यवहृत हुई है जो एक लम्बे समय तक श्रुति परम्परा के माध्यम से सुरक्षित रही। संगीतियों अथवा वाचनाओं के माध्यम से यद्यपि इस आगम परम्परा का परीक्षण किया जाता रहा है पर समय और आवश्यकता के अनुसार चिन्तन के प्रवाह को रोका नहीं जा सका । फलतः उसमें हीनाधिकता होती रही है ।
१. प्राकृत जैन साहित्य प्राकृत जैन साहित्य के संदर्भ में जब हम विचार करते हैं तो हमारा ध्यान जैनधर्म के प्राचीन इतिहास की ओर चला जाता है जो वैदिक काल किवा उससे भी प्राचीनतर माना जा सकता है । उस काल के प्राकृत जैन साहित्य को "पूर्व" संज्ञा से अभिहित किया गया है जिसकी संख्या चौदह है- उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार । आज जो साहित्य उपलब्ध है वह भगवान महावीर रूपी हिमाचल से निकली वाग्गंगा है जिसमें अवगाहनकर गणधरों और आचार्यों ने विविध प्रकार के साहित्य की रचना की है।
परम्परागत साहित्य :
उत्तरकाल में यह साहित्य दो परम्पराओं में विभक्त हो गया-दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा, दिगम्बर परम्परा के अनुसार जैन साहित्य दो प्रकार का है-अंगप्रविष्ट और अंगबाहय । अंगप्रविष्ट में बारह ग्रन्थों का समावेश है- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, सात धर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्त: कृदशांग अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्न ग्याकरण बोर दृष्टिवाद । दृष्टिवाद के पांच भेद किये गये हैं- परिकर्म, सूत्र,