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परम्परानुमार वराहमिहिर के सहोदर भद्रबाहुने ही उपर्युक्त नियुक्तियों की रचना की है। जिन अन्यों में श्रुतकेवली भद्रबाह का चरित्र-चित्रण मिलता है उनमें द्वादशवर्षीय दुष्काल, नेपाल-प्रयाण, महाप्राणयान की आराषना स्थूलभद्र की शिक्षा, छेद सूत्रों की रचना आदि का वर्गन तो मिलता है परन्तु वराहमिहिर का सहोदर होना, नियुक्तियों, उपसग्गहरस्तोय तथा भद्रबाहुसंहिता आदि ग्रन्थों की रचना तथा नैमित्तिक होने का कतई उल्लेख नहीं। अतः छेदसूत्रकार भद्रबाहु तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु दोनों का व्यक्तित्व निश्चित ही पृथक्-पृथक् रहा होगा। वराहमिहिर ने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका शक संवत् ४२७ (ई. ५०५) में समाप्त की थी। अत: तृतीय भद्रबाह का भी यही समय निश्चित किया जा सकता है।
प्रश्न है, वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहुने प्रस्तुत भद्रबाहु संहिता की रचना की या नहीं ? हमे ऐसा लगता है कि वराहमिहिर की "बृहत्संहिता" के समकक्ष में कोई अन्य जैन संहिता रखने की दृष्टि से किसी दिगम्बर जैन लेखक ने श्रुतकेवली भद्रबाहु को सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी आचार्य सममा
ओर उन्हीं के नाम पर एक संहिता ग्रन्थ की रचना कर दी। वृहत्संहिता का विशाल सांस्कृतिक कोष, विशद निरूपण, उदात्त कवित्व शक्ति, सूक्ष्म निरीक्षण ओर अगाध विद्वता आदि जैसी विषेषतायें भद्रबाहु संहिता में दिखाई नहीं देतीं । यह निश्चित है कि भद्रबाहु संहिताकार ने ही वृहत्संहिता का आधार लिया होगा । “भद्रबाहुवचो यथा" आदि शब्दों से भी यही बात स्पष्ट होती है । भद्रबाहुसंहिता में छन्दोभंग, व्याकरण दोष, पूर्वापर विरोष, वस्तुः वर्णन शैथिल्य, क्रमबद्धता का अभाव, प्रभावहीन निरूपण इत्यादि अनेक अक्षम्य दोष भी इस कथन की पुष्टि करते हैं।
स्व. पं. जुगजकिशोर मुख्तार डॉ. गोपाणी' का अनुसरण करते हुए भद्रबाहु संहिता को इधर-उधर का बेढंगा संग्रह मानते हैं जिसे १७ वीं शदी में संकलित किया गया था। यह ठीक नहीं। क्योंकि १७ वीं शती तक सांस्कृतिक अथवा ऐतिहासिक कोई प्रमाण इसमें नहीं मिलता जिसके माघार पर मुख्तार सा. के मत को समर्थन दिया जा सके। मुनि जिनविजय' ने यह समय ११-१२ वीं शती निश्चित किया है । यह यत कहीं अधिक उपमुक्क जान पड़ता है। वैसे ग्रन्थ को अन्त:-प्रमाणों के आधार पर इस समय को भी एक-दो शताब्दी आगे किया जा सकता है।
१. महाबाहु संहिता-सं. ए. एस. गोपाणी, पुस्तिका. पु.७० २. बही. प्राक्कथन, पृ. ३-८.