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द्वितीय परिवर्त
जैन संघ और सम्प्रदाय
मतभेद की भूमिका :
प्रत्येक धर्म में यथासमय संघ और सम्प्रदाय बड़े होते रहे हैं। इन सम्प्रदायों के निर्माण के पीछे सैद्धान्तिक मतभेद और आचार्यों का बहुश्रुतत्व तथा सामाजिक आवश्यकता जैसे कारण रहते हैं ।" सैद्धान्तिक मतभेद यद्यपि धर्म और सम्प्रदाय के विकास की कहानी है फिर भी वे मूल सिद्धान्त से हटते जले जाते हैं । इतिहास इसका साक्षी हैं कि जिन पन्थों में मतभेद नहीं हो पाये वे प्रायः अपने प्रवर्तकों अथवा प्रसारकों के साथ ही कालकवलित हो गये और जिनमें वैचारिक मतभेद पैदा हुए वे उत्तरोत्तर विकसित होते गये ।
जैनधर्म भी इस तथ्य से दूर नहीं रहा । भगवान महावीर के निर्वाण के उपरान्त ही उनके संघ में मतभेद प्रगट हो गये । पालि त्रिपिटक में कहा गया है कि एक बार भ. बुद्ध शाक्य देश में सामग्राम में बिहार कर रहे थे । उसी समय निगण्ठनातपुत्त का निर्वाण पावा में हो गया था । उनके निर्वाण के बाद ही उनके अनुयायियों (निगण्ठों) में मतभेद पैदा हो गये। वे दो भागों (पक्षों) में विभक्त हो गये थे और परस्पर संघर्ष और कलह कर रहे थे । निगण्ठ एक-दूसरे को वचन - बाणों से बेधते हुए विवाद कर रहे थे"तुम इस धर्म विनय को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ, तू इस धर्म विनय को कैसे जानेगा? तूं मिध्यादृष्टि है, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ। मेरा कथन सार्थक है, तेरा कथन निरर्थक है । पूर्व कथनीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय बात आगे कही । तेरा वाद विना विचार का उल्टा है । तूने बाद आरम्भ किया पर निगृहीत हो गया । इस वाद से बचने के लिए इधर-उधर भटक | यदि इस वाद को समेट सकता है तो समेट" इस प्रकार नातपुतीय निगण्ठों में मानो युद्ध ही हो रहा था ।
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" एवं मे सुत्तं एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे । तेन सो पन समयेन निगष्ठो नातपुतो पावायं अधुना कालडकतो होति । तस्स कालङ्किरि
१. विशेष देखिये- लेखक के ग्रन्थ- Jainism in Buddhist Literature तथा बौद्ध संस्कृति का इतिहास - प्रथम अध्याय (अलोक प्रकाशन, नागपुर )
वह जह बस्तुको सम्ममो में सिस्सगणसंपरिवुडो य ।
अनिणिच्छिम य समये तह तह सिद्धान्तपरिणीयो । सम्मति प्रकरण, ३-६६.