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२७७ ) के उल्लेख से यह चातुर्याम मंबर बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है । 'ठाणाङ्ग' (सूत्र २६६ ) आदि जैनागमों से भी इसका समर्थन होता है । पालि साहित्य में उल्लिखित वप्प, उपालि, अभय, अग्निवेसायन सच्चक, दीघतपस्सी; असिबन्धकपुत्त गामणि, देवनिक, उपतिक्ख, सीहसेनापति आदि जैन उपासक पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी रहे हैं ।
इन प्रमाणों से यह निश्चित हो गया कि पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व एंविहासिक है । उनके सिध्दान्तों से पिप्पलाद, भारद्वाज जैसे अनेक वैदिक ऋषि प्रभावित रहे प्रतीत होते हैं । भगवान बुद्ध ने तो उनकी परम्परा में बोधिलाभ के पूर्व दीक्षा भी ली थी । यह बात उनकी स्वयं की साधना के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है । आचार्य देवसेन ने तो 'दर्शनसार' में पार्श्व परम्परा में दीक्षित बुद्ध का पूर्व नाम भी उल्लिखित किया है । उसके अनुसार बुद्ध पिथिताश्रव नामक साधु के शिष्य बुद्धकीति के नाम से विख्यात थे । परन्तु मत्स्याहार प्रारम्भ कर देने से वे पथभ्रष्ट हो गये और उन्होंने अपना स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित कर लिया ।
पार्श्वनाथ की परम्परा और उसके आचार्यों के विषय में साहित्य प्रायः मौन है। कुछ उपासकों के उल्लेख अवश्य मिलते हैं जिनका उल्लेख हम उपर कर चुके हैं । "उपदेश गच्छ चरितावली" में भगवान पार्श्वनाथ की आचार्य परम्परा में केवल चार आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है- शुभवत, समुद्रहरि, हरिदत्त और केशी । परन्तु अन्यत्र उनका सक्षम और ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता । अत: ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में हम उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते ।
पार्श्वनाथ की करुणाद्रता, अहिंसाप्रियता, चिन्तनशीलता एवं वात्सल्य का प्रभाव तत्कालीन आचार्यों पर निश्चित रूप से देखा जा सकता है । पिप्पलाद, भारद्वाज, नचिकेता जैसे वैदिक ऋषियों और केशकम्बलि, सञ्जयले लट्ठिपुत तथा बुद्ध जैसे तीर्थकरों के जीवन और दर्शन पर पार्श्वनाथ की चिन्तन परम्परा का प्रभाव स्पष्ट रूपसे झलकता है । भगवान महावीर को तो निश्चित ही उनका आचार-विचार और दर्शन विरासत में मिला है ।
महाबीर :
तीर्थंकर महावीर छठी शताब्दी ई. पू. का एक ऐसा क्रान्तिदर्थी व्यक्तित्व था जिसने परम्परा में पली-पुसी समाज की हर समस्या को समीप से बेला था और उसकी मूलभूत आवश्यकताओं को भलीभांति समझा था । दकिवानूसी विचारों से त्रस्त, ऊंच-नीच की भावनाओं से ग्रस्त और आर्थिक, सामा