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कर्म के भेदों में एक गोत्रकर्म है जिसके दो भेद किये गये हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । ये भेद आत्मा की आभ्यन्तर शक्ति की अपेक्षा से हुए हैं।' प्रत्येक पर्याप्तक भव्य जीव आत्मा की सर्वोच्च विशुद्धावस्था के प्रतीक चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है। इसमें वर्ण, जाति अथवा गोत्र का कोई बन्धन नहीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र कोई भी सभ्यक्चारित्रवान् व्यक्ति उसे प्राप्त कर सकता है ।
इसी सिद्धान्त के आधार पर जैनाचार्यों ने वैदिक संस्कृति में प्रचलित ब्राह्मणादि वर्णों की व्याख्या को अपने ढंग से परिवर्तित कर दिया। तदनुसार ब्राह्मण वही है जो वस्तु के संयोग में प्रसन्न नहीं होता और वियोग में दुःखी नहीं होता, विशुद्ध है, निर्भय है, राग-द्वेष विमुक्त है, अहिंसक है, शान्त है, पञ्चव्रतों का पालक है, गृहत्यागी है, अनासक्त है, अकिञ्चन है और समस्तकों से मुक्त है। धम्मपदका ब्राह्मण वग्ग और सुत्तनिपात का वासेट्टसुत्त भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । वहां महात्मा बुद्ध ने भी इसी प्रकार ब्राह्मण की व्याख्या की है। शेष वर्णों को भी श्रमण साहित्य में सम्यक्चारित्र से सम्बद्ध किया गया है और उन सभी को समान रूप से मुक्ति पथ प्राप्य बताया है।
जैन संस्कृति की यह कर्मणा व्यवस्था बहुत समय तक नहीं चल सकी। उत्तरकाल में यह पुनः वैदिक संस्कृति से प्रभावित होने लगी। जिनसेन (८वीं शती) के आते-आते जैनधर्म ने चातुर्वर्ण व्यवस्था को दबी आवाज में स्वीकारसा कर लिया। उसने ब्राह्मण का संबन्ध व्रतों के संस्कार से जोड़ दिया। साथ ही शूद्रों के दो भेद कर दिये- कारू और अकारू । धोबी, नाई, सुवर्णकार आदि कारू शूद्र है जो स्पृश्य है । तथा समाज से बाहर रहने वाले शूद्र अकारू हैं जिन्हें अस्पृश्य कहा गया है । यह समाज व्यवस्था कर्मणा होते हुए भी सामाजिक दृढ़ता बनाये रखने के लिए स्वीकार कर ली गई। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि तथाकथित उच्च जाति में जन्म लेना मुक्ति का कारण नहीं बल्कि मुक्ति का कारण है चारित्र और वीतरागता। इसी प्रकार वय, लिङ्ग आदि का भी मुक्ति प्राप्ति के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं।
शताब्दियों का परिवर्तन स्थिर-सा हो गया। गर्भान्वय आदि क्रियानों तथा उपनयन आदि संस्कारों के निर्धारण ने उसे और भी स्थिरता प्रदान कर
१. कषायप्राभूत, १.८.; प्रवचनसार, १.७ २. उत्तरायणं, २५.१९-२७. ३. बादिपुराण, १६. १८४-१८६.