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तमिलनाडु में प्रस्तर निर्मित जैन मंदिरों का क्रम पल्लवशैली के मंदिरों से प्रारंभ होता है । जिन कांची का चन्द्रप्रभ मंदिर इसका उदाहरण है । इसमें तीन तल का चौकोर विमान मंदिर है । उसके सामने मुख मण्डप है। तीनों तलों में नीचे का तल ठोस है और वह मध्य तल के लिए चौकी का काम देता है जिस पर मुख्य मंदिर है यह तत्कालीन जैन मंदिरों का प्रचलित रूप है । गर्भगृह में चन्द्रप्रभ की मूर्ति है भित्ति स्तम्भ अलंकृत हैं। इस मंदिर समूह में विशाल मुख मंडप, अग्र मंडप प्राकार और गोपुर भी सम्मिलित हैं । तोंडईमंडलम के दक्षिण में भी निर्मित शैली के अनेक जैन मंदिर मिलते हैं जो मुत्तरयार और पांडयों के द्वारा प्रस्तर के बनवाये हुए हैं ।
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दक्षिण के संपूर्ण प्रस्तर निर्मित प्राचीन मंदिरों में एक चन्द्रगुप्त बस्ती का मंदिर प्राचीनतम कहा जा सकता है। यह मंदिर समूह श्रवण बेलगोला की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर है। इसमें तीन विमान मंदिरों का समूह है । श्रवण बेलगोला के बाह्य अंचल में कम्बद हल्लि की एक पंचकूट बस्ती है जिसमें दक्षिणी वास्तुशास्त्र शिल्पशास्त्र और आगम ग्रंथों में वर्णित तत्वों और शैलियों का सचित्र वर्णन है । यहाँ नागर, द्राविड़ और वेसर शैली की कृतियाँ मिलती हैं, जिनमें अलंकरण की प्रचलित पद्धतियों का भरपूर उपयोग किया गया है । चालुक्य और राष्ट्रकूट शैली की संरचना दृष्टव्य है ।
दक्षिणापथ में राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद जैनधर्म की लोकप्रियता में कमी नहीं आयी । कल्याणी के चालुक्य काल में लक्कुण्डी, श्रवणवेलगोला, लक्ष्मेश्वर, पटदकल आदि स्थान जैनकला के केन्द्र बने । कहा जाता है कि अत्तियब्बे ने १५०० जैन मन्दिर बनवाये। उत्तर कालीन चालुक्य, होयसल, यादव और काकतीय राजवंशों के शासकों ने स्थापत्य की उत्तरी और दक्षिणी शैलियों को समन्वित किया। गर्भगृह और शिखर में दक्षिणी शैली तथा शेष भागों में उत्तरीशैली को नियोजित किया । विजयनगर में अवश्य दक्षिणी शैली को ही अपनाया गया ।
कल्याणी के चालुक्यों द्वारा निर्मित मन्दिरों में लक्कुण्डी ( धारवाड़ ) का ब्रह्मजिनालय, ऐहोल (बीजापुर) का चारण्डी मठ, तथा लक्ष्मेश्वर ( धारवाड़) का शंख जिनालय उलेखनीय है। लक्कुण्डी मन्दिर का शिखर ऊपर पहुँचते-पहुँचते चतुरस्र आकार का हो जाता है। ऊपर एक लघु गर्भालय-सा बना है । रथों की संयोजना वर्तुलाकार लिये हुये है, शिखर शुकनासा युक्त है, भित्तियों पर देवकुलिकाओं और त्रिकोण- तोरण का अंकन है। रंगमण्डप के बाहर एक श्रृङ्गारचोरी मण्डप है जो उत्तरकालीन विकास का परिणाम है। ऐहोल के चारण्टी