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जिला ), चरंपा ( बालासोर जिला ), बानपुर समूह, खण्डगिरि, आदि जैनकला केन्द्र रहे जहाँ विशाल जैन मूर्तियां मिली हैं। उन पर गुप्तकालीन मूर्तिकला का प्रभाव दिखाई देता है बिहार में राजगिरि की वैभार पहाड़ी और उदयगिरि पहाड़ी में सुरक्षित कुछ जैन मूर्तियां उल्लेखनीय हैं जिनमें से कुछ में पादपीठ पर कमल का अंकन है । गुप्तकाल में कमल का अंकन नहीं होता था ।'
तेरहवीं शताब्दी के बाद पूर्व भारत में जैनधर्म और कला वैदिक धर्म और कला में अन्तर्भूत होती-सी प्रतीत होती है । इसलिए जैनकला पर वैदिक मूर्तिकला का प्रभाव अधिक पड़ा है। इस समय की जैन मूर्तियों में सर्वतोभद्र मूर्तियों का परिमाण अधिक है। यक्ष-यक्षिणियों की भी मूर्तियां उकेरी गई हैं ।
पश्चिम भारत :
पश्चिम भारत जैनधर्म का प्रारंभ से ही केन्द्र रहा है । कहा जाता है कि भ. महावीर ने भिल्लामाल की यात्रा की थी परन्तु यह तथ्य अभी तक किसी पुष्टप्रमाण से प्रमाणित नहीं हो सका। मौर्य शासन काल में सम्प्रति आदि राजाओं ने जैनधर्म को प्रश्रय तो दिया पर इस काल की कोई कलात्मक कृति देखने नहीं मिल सकी । वसुदेव हिण्डी (लगभग ५ वीं शताब्दी) तथा आवश्यक चूर्णि ( सातवीं शती)' में महावीर के जीवन काल में निर्मित 'जीवन्तस्वामी' की चन्दन काष्ठ प्रतिमा का उल्लेख अवश्य आता है पर अभी तक वह उपलब्ध नहीं हुई । इसी प्रतिमा को प्रद्योत उठा ले गया और उसे विदिशा में प्रतिष्ठित किया । हेमचन्द्र ने इसी प्रतिमा को कुमारपाल द्वारा पत्तन में प्रतिष्ठापित किये जाने का उल्लेख किया है ।"
कोयोत्सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथकी कांस्य प्रतिमा जो प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में सुरक्षित है, लोहानीपुर और मोहेन्जोदड़ो से प्राप्त मूर्तियों के समकक्ष रखी जा सकती है। शाह ने इसे पश्चिम भारत में निर्मित मूर्ति कहा है ।" पश्चिम भारत में ई. पू. और प्राथमिक शताब्दियों में जैनधर्म के प्रचार
१. विशेष देखिए- पूर्व भारत, श्रीमती देवला मित्रा, डॉ. रमानाथ मिश्र, डॉ. प्रियतोव बनर्जी, सरसी कुमार सरस्वती, तथा जैन जर्नल, अप्रैल, १९६९.
२. वसुदेव हिण्डी, भाग १, पृ. ६१
३. आवश्यक चूर्णि, गाथा, ७७४
४. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, १०, ११, ६०४
५. जैन कला एवं स्थापत्य, भाग १, पु. ९१.