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उकेरा जाता था। छत्रत्रय और छत्रावली तथा लांछन का अभाव इस की मूर्तियों पर स्पष्ट दिखाई देता है। मधुरा संग्रहालय में गुप्त युग की मूर्तियों का अच्छा संकलन है। वेसनगर, बूढी चंदेरी तथा देवगढ़ में भी - युगीन मूर्तिकला के दर्शन होते हैं।
राजगिर, कुमराहार, वैशाली, चौसा, पहाड़पुर आदि से प्राप्त कांस, प्रस्तर तथा मृणमूर्तियों के देखने से यह पता चलता है कि कलाकारों में सौन्दर्यबोध बढ़ चुका था। मूर्तियों के भावों में सरलता, सामञ्जस्य और आमात्मिकता का अंकन और अधिक स्पष्ट हो गया था। प्रतिमाओं पर कुछ चिन्ह भी बनने लगे थे।
विदिशा के समीप दुर्जनपुर में उपलब्ध जैन मूर्तिओं पर रामगुप्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि इन प्रतिमाओं पर कोई चिन्ह नहीं है। चिन्हों की पूर्ण स्वीकृति गुप्तकाल के अन्तिम समय तक हो सकी होगी, ऐसा प्रतीत होता है। विदिशा के समीप ही उदयगिरि और वैसनबर से भी जैन मतियां मिली है। पन्ना जिले के नचना ग्राम के समीपवर्ती खीरा नामक पहाड़ी से भी कुछ सुन्दर मूर्तियां मिली है जो गुप्तयुगीन विशेषताओं को लिये हुए हैं। पर यहां की मूर्तियों में अलंकरण उभरकर अधिक दिखाई देता है।
___ अकोटा समूह से उपलब्ध कुछ कांस्य मूर्तियां है जिनमें एक जीवन्त स्वामी की भी मूर्ति है। वह कायोत्सर्ग मुद्रा में है और मुकुट, कुण्डल, भुजबमा, कंगन तथा धोती पहने हुए है । एक अन्यमूर्ति का प्रभामण्डल दर्शनीय है । एकावतीयुक्त अम्बिका का भी यहाँ अंकन हुआ है।
गुप्तोत्तरकालीन मूर्तिकला :
इस काल में भी मथुरा नगरी कला केन्द्र बनी रही। पर उसके कला केन्द्र नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये। मथुरा के समीप कामन की चौंसठ-खंभा नामक प्राचीन मसजिद ऐसी ही है जिसमें १०-११ वीं शती की जैन मूर्तियां उपलब्ध हैं। वयाना की उरवा मसजिद भी ऐसी ही है जो जैन मन्दिर को नष्ट कर बनायी गई है। मयुरा संग्रहालय में गुप्तोत्तर कालीन मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। प्रतिहारकालीन पार्श्वनाथ की मूर्ति, तथा चक्रेश्वरी की मूर्ति कला की दृष्टि से बहुत सुन्दर है । लखनऊ, इलाहाबाद और वाराणसी के संग्रहालयों में भी उत्कृष्ट कोटि की मूर्तियों का संग्रह है।