________________
३३६
गोविन्द तृतीय के आश्रय में रहे हैं। अमोघवर्ष जिनसेन का शिष्य था । वीरसेन का अधूरा कार्य जिनसेन ने पूरा किया और जयधबला ग्रन्थ का निर्माण किया । गुणभद्र, पाल्य कीर्ति और महावीराचार्य भी इसी राजा के राजाश्रय में रहे हैं । अमोघवर्ष स्वयं विद्वान था । उसने स्वयं 'प्रश्नोत्तरमाला' संस्कृत में और 'कविराजमार्ग' कन्नड में लिखा । कृष्ण द्वितीय के राज्यकाल में हरिवंश पुराण के लेखक गुणवर्मा और धर्मशर्माभ्युदय तथा जीवन्धरचम्पू के रचयिता हरिचन्द रहे । इन्द्र तृतीय तथा इन्द्र चतुर्थं ने भी जैनधर्म को प्रश्रय दिया । कृष्णराज तृतीय अकालवर्ष ( ९३९ - ६७ ई.) राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम प्रभावक शासक था । पोन और सोमदेव उसके राजकवि थे । महाकवि पुष्पदन्त भी इसी समय रहे ।
'पउमचरिय' में रामगिरि ( रामटेक, नागपुर ) मे जैन मन्दिरो के बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। हरिवंशपुराण भी इस कथन की पुष्टि करता है । पूर्व वाकाटक कालीन जैन मंदिरो के विद्यमान होने की भी सभावना है। केलकर (वर्धा) से प्राप्त ॠऋषभदेव की मूर्ति, पवनार (वर्धा) से प्राप्त जिन प्रस्तर प्रतिमायें, पद्मपुर (गोदिया) से प्राप्त पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरो की प्रतिमायें, देवटेक ( चांदा) से प्राप्त मौर्यकालीन अभिलेख, सातगांव तथा मेहकर ( बुलढाना) से प्राप्त जिन प्रतिमाये व अभिलेख शिरपुर से प्राप्त अभिलेख युक्त पार्श्वनाथ की दिगम्बर मूर्ति, राजनापुर, खिनखिनी (अकोला), अचलपूर, (अमरावती), मुक्तागिरी, बाजारगांव (नागपुर), भांदक आदि स्थानों से प्राप्त जैन मूर्तिया तथा अभिलेख विदर्भ में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के ज्वलन्त उदाहरण है ।
चालुक्य वंश में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का बहुत प्रभाव रहा है और समूचे दक्षिण मे उसने केन्द्र स्थापित किये । छोटे छोटे राजवशो ने भी जैनधर्म की आश्रय दिया । होयसालवंश उनमे प्रमुख है । इसकी राजधानी द्वारसमुद्र नगरी प्रमुख जैन केन्द्र थी । नागचन्द्र, नागवर्य, ब्रह्मशैव, नेमिचन्द्र, राजादित्य, जन्न आदि प्रधान जैनाचार्य इसी वश के राजाश्रय मे रहे हैं। बाद मे यद्यपि जैनधर्म दक्षिण में अच्छी स्थिति में रहा पर उसे लिङ्गायतो अथवा वीरशैवो का तीव्र द्वेष सहना पड़ा । लिङ्गायत सम्प्रदाय की स्थापना बासव ( ११६० ई.) ने की थी जो एक समय स्वयं जैन था ।
विजयनगर राज्य मे जैनधर्म और वैष्णवधर्म समान रूप से लोकप्रिय रहे। सिंहकीर्ति, बाहुबली, केशववर्णी, धर्मभूषण, कल्याणकीर्ति, जिनदेव, मल्किनायसूरि आदि जैनाचार्य इसी काल में रहे हैं । हरिहराय ( १३४६ - १३६५ ई.) बुक्कराय, देवराय, वीरुपक्षाश्रय आदि राजा जैनधर्म के अनुयायी अथवा