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भद्रबाहु द्वितीय, लोहाचार्य और कुमारनन्दि आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्व वर्ती विद्वान थे। तमिल भाषा में लिखित कुरल काव्य संभवतः कुन्दकुन (ऐलाचार्य) की रचना है। प्रवचनसार नियमसार, पंचास्तिकाय, समयसा आदि महान् अथ उन्ही की देन है। उनके बाद दक्षिण में ही शिवार्य ने भगवर्त आराधना, विमलसूरि ने पउमचरिउ, पुष्पदंत और भूतवली ने षट्खंडागम कुमार कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रंथों की रचना की।
लगभग ६६ ई. मे महिमा नगरी में आचार्य अर्हत्बली ने एक सम्मेलन बुलाया। फलस्वरूप नन्दि, देव, सेन आदि गच्छो मे जैन शासन विभक्त हो गया इसी समय मभवतः श्रीकलश ने यापनीय सघ की स्थापना की। उत्तरकाल। अतंतःजैन शासन दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के रूप में विभाजित हो से बचाया नही जा सका । मूलसंघ, काष्ठसंघ, द्राविडसंघ आदि सघ भी दक्षिर की देन है। भट्टारक प्रथा भी दक्षिण की ही उपज है।
आंघ सातवाहन, क्षत्रप और नाग राजाओं के समय चोल पांडघ, सत्य पुत्र आदि राज्यों का अस्तित्व मिलता है। इन्हीं राजाओं के काल में समन्तभद्र शिवकोटि, नागहस्ति, यति वृषभ, सिंघनन्दि आदि प्रधान जैनाचार्य हुए है पल्लव वंश (द्वितीय-तृतीय शती) के शिवस्कंद वर्मन, सिंहवर्मन और महेन वर्मन जैनधर्म के संरक्षक रहे है । प्रतिष्ठान (पैठन) सातवाहन काल से ही जै केन्द्र रहा है। उसका सम्बन्ध शालिवाहन से बताया जाता है। कालकाचार्य शालिवाहन से संपर्क स्थापित किया था।
पाण्डच देश की राजधानी मदुरा तमिल सगम साहित्य की प्रणयन-स्था थी। इस साहित्य के आद्य ग्रंथ तिरुकुरल, तोलकाप्पियम, नलादियर, चितामणि शिलप्पदिकरम् नीलकेशि, मणिमेखले, कुरल आदि महाकाव्य जैनाचार्यों द्वा लिखे गये है। देवनन्दि, पूज्यपाद, वज्रनन्दि, गुणनन्दि, पात्र केसरी, सुमतिदे आदि आचार्य दक्षिण के ही हैं। चोल राजवंश में राजराजा और कोलत्त (१०७४-११२३ ई.) प्रधान जैन रक्षक रहे है। धनपाल की तिलक मंज और जयंगोदन्य की तमिल महाकाव्य कलिंगत्तुपरणी इसी समय की रचनायें है चेर राजा सेंगुत्थवन (द्वितीय-तृतीय शती) जैनधर्म का अनुयायी था। तमि भाषा का प्रसिद्ध महाकाव्य शिलप्पदिकरम् उसी के भाई जनमुनि इल्लीवलर की रचना है। कदम्ब वंश के राजा शिवस्कन्द ने समन्तभद्र से जिनदीक्षा ली इसी वंश के अन्य राजा शांतिवर्मन, मृगेश वर्मन, रवि वर्मन और हरि वर्मन धर्मानुपायो थे। उन्होंने श्रुतकोति और वारिषेण को बड़ सम्मानित किया । मैवनायनार और वैष्णन अलबरों के काल को।