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सप्तम परिवर्त जैनधर्म का प्रचार-प्रसार और कला जैनधर्म का प्रचार :
जैनधर्म के प्राचीन इतिहास को देखने से पता चलता है कि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के पूर्व जैन संस्कृति का प्रचार-प्रसार बहुत हो चुका था। पालि साहित्य में यद्यपि इस प्रकार के उल्लेख कम मिलते हैं पर जो भी मिलते हैं उनसे महावीर के पूर्व के जैन-इतिहास और संस्कृति पर किञ्चित् प्रकाश पड़ता है। पार्श्वनाथ परम्परा के शिष्य के साथ महावीर और बुद्ध के वार्तालाप तथा विविध प्रसंग इस सन्दर्भ में दृषव्य है।'
उत्तर भारत शिशुनागवंश (ई.पू.७ वीं शताब्दी से ई.पू.५वीं शताबी तक):
भगवान महावीर का समकालीन शिशुनागवंशीय राजा श्रेणिक बिम्बिसार मगध का प्रधान नरेश था जिसका सम्बन्ध परम्परा से जैनधर्म से बताया जाता है। राजगृह उसकी राजधानी थी। वैशाली नरेश चेटक, कोसल नरेश प्रसेनजित आदि राजाओं से भी उसका पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। प्रसेनजित की पुत्री चेलना से उत्पन्न कुणिक अजातशत्रु उसका उत्तराधिकारी बना। उसने कौशल और वज्जिसंघ की संयुक्त शक्ति को छिन्न-भिन्न किया और राज्य का विस्तार किया। उसके उत्तराधिकारी उदायी आदि भी प्रभावक राजा हुए। ये सभी नरेश जैनधर्म के अनुयायी रहे हैं। अवन्ति नरेश पालक का भी यही समय रहा है।
जैनधर्म उत्तर भारत की देन है। वहीं से वह देश-विदेश के कोनों में फैला है। मगध प्रायः हर सम्प्रदाय का सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। राजगृह और
१. विशेष देखिये- लेखक की पुस्तक-Jainism in Buddhist Literature.
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