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विषयभोगों से निरासक्त होकर समभावी बन जाय । इस प्रकार का उसका यह तप संवर और निर्जरा का कारण होता है । यह तप दो प्रकार का बताया गया है। बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है अतः ज्ञेय होता है और मनका नियमन करने वाला होने से प्रायश्चित्तादि को आभ्यन्तर तप कहते हैं । "
(१) बाह्यतप :
१. अनशन - एकाशन अथवा उपवास । यह सावधिक और निरवधिक दो प्रकार से होता है । सावधिक में एक निश्चित समय के बाद भोजन ग्रहण कर लिया जाता है । साधारणतः इसके छह प्रकार बताये गये हैं - ( १ ) श्रेणीतप ( लगातार चार अनशन करना), (२) प्रतरतप (श्रेणी तप की चार बार पुनरावृत्ति होना - १६ उपवास), (३) घन तप (श्रेणी तप से गुणित तप - १६x४= ६४ उपवास), (४) वर्गतप (घनतप से गुणित तप - ६४४४ = ४०९६ उपवास), (५) वर्ग-वर्ग तप ( वर्ग तप से गुणित - ४०९६४४०९६= १६७७७२१६ उपवास), और (६) प्रकीर्ण तप ( यथाशक्ति उपवास करना ) ' । निरवधिक उपवास तप शरीर के अन्तिम काल में ग्रहण किया जाता है । इसे 'सल्लेखना ' भी कहते हैं । इसके सविचार (शरीर को सचेष्ट बनाये रखना) और अविचार ( शरीर को निश्चेष्ट बनाये रखना ), सपरिकर्म ( दूसरों से सेवा कराना) और अपरिकर्म (दूसरों से सेवा न कराना) तथा नीहारी (गुफा आदि में रहकर अनशन करना) और अनिहारी (ग्रामादि में रहकर अनशन करना) आदि भेदों का भी उल्लेख मिलता है ।'
२. ऊनोवर अथवा अवमोदयं - भूख से कुछ कम खाना । इसके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यवचरक की इष्टि से पांच भेद है । क्षेत्रके भेदों में पेटा, अर्धपेटा, पतंगबीथिका, शम्बुकावर्त, आयतं गत्वा प्रत्यागता आदि भेदों पर विचार किया गया है ।
३. वृत्तिपरिसंख्यान - भिक्षा के लिए केवल एक-दो-तीन घर का निश्चय करना । इसी को भिक्षाचर्या तप भी कहा गया है । उत्तराध्ययन में इसके तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है— गोचरी, मृगचर्या और कपोतवृत्ति ।
१. उत्तराध्ययन, नेमिचन्द वृत्ति पू. ३३७
२. वही, ३०. १४- २४
३. उत्तराध्ययन, ३०. २५-२८; तत्त्वार्थसूत्र, ९.१९