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११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा :
यह श्रावक अपने निमित्त बने आहार को ग्रहण नहीं करता । इसलिए उद्दिष्टत्यागी कहलाता है । इसे 'उत्कृष्ट श्रावक' कहा गया है। इस अवस्था में वह घर छोड़कर वन या मन्दिर में निवास करने लगता है, भिक्षावृत्ति से आहारग्रहण करता है, निर्मोही होकर चेलखण्ड को धारण करता है और रातदिन सम्यक् तपस्या में मग्न रहता है ।"
आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, समन्तभद्र आदि आचार्यो ने इस प्रतिमाधारी के कोई भेद नहीं किये । जिनसेन भी स्पष्टतः कुछ नहीं कह सके । उन्होंने दीक्षार्ह और अदीक्षार्ह की बात अवश्य सामने रखी । वसुनन्दि ने ही सर्वप्रथम उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी श्रावकों के दो भेद किये प्रथम वस्त्रधारी और द्वितीय कौपीनधारी । वस्त्रधारी श्रावक कटिवस्त्र और चादर रख सकते हैं । वे शिरोमुण्डन अथवा केशलुञ्चन कर सकते हैं । कंसपात्र अथवा पाणिपात्र भोजन ले सकते हैं । कौपीनवस्त्रधारी श्रावक मात्र कटिवस्त्र रख सकता है । उसे चादर को भी छोड़ देना पड़ता है । "
इन दोनों भेदों में प्रायश्चित्त चूलिकाकार (११ वीं शती) ने प्रथम उत्कृष्ट श्रावक को 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग अवश्य किया है पर वह अधिक प्रचलित नहीं हो पाया । ( १५-१६ वीं शती तक प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के रूप में भी उनका विवेचन होता रहा । इसके बाद सर्वप्रथम लाटी संहिताकार पं. राजमल्ल ने इन भेदों को क्रमशः 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' संज्ञा दी । क्षुल्लक शब्द का अर्थ क्षुद्र अथवा स्वल्प होता है । वह मात्र लंगोटी और चादर रखता है । ऐलक ईषत् चेलक का प्रतीक है जो मात्र कटिवस्त्र अथवा लंगोटी रखता है । इसके अतिरिक्त क्षुल्लक और ऐलक के पास एक पीछी और एक कमंडलु रहता है । पीछी से वह क्षुद्र जीवों को अलगकर निर्जीव स्थान में उठने-बैठने का काम लेता है और कमण्डलु में प्रासुक जल रहता है जो हाथ वगैरह धोने के काम आता है ।
सोमदेव ने उपर्युक्त प्रतिमाधारी श्रावकों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से भेद किये हैं । उन्होंने प्रथम छह प्रतिमाधारी को गृहस्थ और जघन्य श्रावक कहा है। सातवीं, आठवीं और नवीं प्रतिमाधारी श्रावक को ब्रह्मचारी, वर्णी और मध्यम श्रावक बताया है तथा दसवीं, और ग्यारहवीं प्रतिमा
१. अमितगति श्रावकाचार, ७.७७. २. वसुनन्दि श्रावकाचार, ३०१.