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व्यक्ति प्रायः जंगलों में रहते थे । उस समय नागरिक और कौटुम्बिक व्यवस्था का अभाव था । समाज साधारणतः अपनी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति वृक्षों से कर लिया करता था । इसलिए वृक्षों को यहां " कल्पवृक्ष " कहा गया है । भाई-बहिन ही अपनी तरुणावस्था में पति-पत्नी बन जाते थे । इससे पत्ता चलता है कि उस समय यौन सम्बन्ध विषयक विवेक जागरित नहीं हुआ था । ऐतिहासिक दृष्टि से इसे हम पूर्व और उत्तर पाषाणयुग का समन्वित रूप कह सकते हैं ।
सभ्यता का विकास धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा । नागरिक और कौटुम्बिक व्यवस्था के साथ कृषि, कर्म भी प्रारम्भ हो गया । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प जैसी कलाओं का जन्म भी इसी समय हुआ । जैन संस्कृति में इस युग को 'कर्मभूमि' नाम दिया गया है और इसके प्रवर्तकों को 'कुलकर' की संज्ञा से अभिहित किया । इन कुलकरों की संख्या जैन साहित्य में कहीं सात, कहीं चौदह और कहीं पन्द्रह मिलती है। ठाणांग ( ७ स्वरमण्डलाधिकार) में कुलकरों की संख्या ७ है - (१) विमल वाहन, (२), चक्षुष्मान, (३) यशोमान, (४) अभिचन्द्र, (५) प्रसेनजित, (६) मरुदेव, और (७) नाभि । जिनसेन के महापुराण (१.३.२२९-३२ ) में यही संख्या १४ हैं - (१) सुमति, (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर, (४) सीमन्धर, (५) क्षेमंकर, (६) क्षेमन्धर, (७) विमलवाहन, (८) चक्षुष्मान, (९) यशस्वी, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित (१३) मरुदेव, और (१४) नाभि । जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति (पृ. १३२ ) में ऋषभदेव का नाम जोड़कर कुलकरों की कुल संख्या पन्द्रह कर दी गई हैं ।
कुलकरों की संख्याओं में मतभेद भले ही हो पर उनके कार्यों में मतभेद नहीं है । सभी कुलकरों ने समाज को सभ्यता का कोई ना कोई अंग अवश्य दिया है । जिनसेन ने तो प्रत्येक कुलकर के द्वारा किये गये कार्यों का उल्लेख किया है । वस्तुतः कुलकर समाज को व्यवस्थित रूप देनेवाली एक संस्था होनी चाहिए। जैन साहित्य और संस्कृति में कुलकर का वही स्थान है जो वैदिक संस्कृति में मनु का है । वहां भी मत्स्य पुराण आदि में मनुओं की संख्या चौदह बतायी गई है । कुलकर अथवा मनु का मुख्य कार्य है-धर्म और कर्म की स्थापना कर समाज और राष्ट्र को एक नयी सभ्यता के लोक में पहुंचाना ।
सम्पता का उत्कर्ष - अपकर्ष काल :
भूवैज्ञानिकों और पुरातात्विकों ने सृष्टि-प्रक्रिया को आदि मानव के समीप तक पहुंचाने के लिए तीन कालों में विभाजित किया है- १. पेलेजोइक,