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के पूर्व अनेकान्तात्मक स्यात्' शब्द का प्रयोगकर हेयोपादेय की व्यवस्था बन जाती है। इसी व्यवस्था को 'स्याद्वाद' कहा गया है। 'स्यात् के स्थान पर 'कथञ्चित्' शब्द का भी प्रयोग होता है। इन शब्दों का प्रयोग निश्चयनय के साथ आवश्यक नहीं। वे शब्द तो व्यवहार-साधक हैं। यहां यह भी दृष्टव्य है कि ये शब्द धर्मों के साथ प्रयुक्त होते हैं, वस्तु के अनुजीवी गुणों के साथ नहीं।
जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होती। जैसे कुरबक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगों का होता है । न केवल रक्त ही होता है, न केवल श्वेत ही होता है और न ही वह वर्ण शून्य है । इसी प्रकार पर की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व होने पर भी स्वदृष्टि से उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है । कहा भी है
अस्तित्वमुपलब्धिश्च कथंचिदसतः स्मृतेः । नास्तितानुपलब्धिश्च कथंचित् सत् एव ते ॥१॥ सर्वथैव सतो नेमी धर्मों सर्वात्मदोषतः । सर्वथैवासतो नेमो वाचां गोचरताप्रत्ययात् ।। २ ॥
पदार्थ के सत् और असत् स्वभाव के आधार पर जैन और जैनेतर सम्प्रदायों के अनेक प्रकार से उत्तर देने की परम्परा रही है। वैदिक साहित्य में सत् और असत् की बात नासदीय सूक्त में कही गई । उपनिषद्काल में तो वह और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। नैयायिक 'अनेकान्त' शब्द का प्रयोग करते हैं और वेदान्तिक पारमाथिक और व्यावहारिक जैसे नयों की बात करते हैं । बुद्ध ने भी 'अनकंस' शब्द का प्रयोग किया है तथा दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर चतुष्कोटि के माध्यम से दिया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राचीन दार्शनिक पदार्थ के अनन्त स्वभाव पर चिन्तन करते रहे और उसकी सम्यक् अभिव्यक्ति का भी प्रयत्न करते रहे ।
सप्तमम्गी:
जैन दार्शनिकों ने उक्त प्रयत्न को और आगे बढ़ाया। उन्होंने पदार्थ के विधि-निषेधात्मक स्वरूप को सात प्रकार से विभाजितकर स्पष्ट करने का प्रयल किया । इसी को सप्तभङ्गी कहा गया है । ये सात भङ्ग इस प्रकार है
१. स्यादस्ति २. स्यानास्ति १, तत्वावातिक, २.८.१८.५ २. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यवरोधेन विषिप्रतिष कल्पना सप्तमगी
बलावातिक १....