________________
१०
फेवलमान और सर्वशता:
त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और पर्यायोंको युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान' कहलाता है । केवलज्ञानी को ही 'सर्वज्ञ' कहा गया है । वह परनिरपेक्ष होता है अतः उसे 'अतीन्द्रियज्ञानी' भी कहा जाता है। मानावरण कर्म के समूल नष्ट हो जाने पर ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है।
मीमांसक ईश्वर को नहीं मानते। वे वेद को अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण मानते है । अत: उनकी दृष्टि में सर्वज्ञता का कोई अस्तित्व नहीं। नैयायिकवैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं और वे ईश्वर के ज्ञान को नित्य मानकर उसकी सर्वज्ञता की सिद्धि करते हैं । वही सर्वज्ञ-ईश्वर जगत् का सृष्टिकर्ता है ।
सांस्य का ईश्वर उत्कृष्ट सत्त्वशालिता वाला है । उसमें अणिमा, महिमा, लषिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व और यत्रकामावशायिता ये आठ ऐश्वर्य रहते हैं। उस ऐश्वयंसम्पन्न ईश्वर में स्थिति, उत्पत्ति, और विनाश तोनों को उत्पन्न करने की सामर्थ्य है । जब उद्भूतवृत्तिरज सहायक होता है तब वह उत्पत्ति करता है, जब सत्त्व सहायक होता है तो प्रलय करता है।
जैनधर्म जगतकर्ता और सर्वज्ञ के बीच कोई सम्बध नहीं जोड़ता। उसकी दृष्टि में सर्वशता की प्राप्ति तभी संभव है जब समस्तकर्मों का आवरण परिपूर्णत: दूर हो जाय।
बौद्धधर्म में बुद्ध ने स्वयं को सर्वज्ञ कहना उचित नहीं समझा पर वे अपने आपको 'विद्य' कहा करते थे। इसी का विकास उत्तरकाल में धर्मज्ञ और सर्वज्ञ की मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। ___ उपर्युक्त पांचों ज्ञानों में से एक आत्मा में एक साथ अधिक से अधिक चार मान होते हैं। केवलज्ञान अकेला होता है। उसे अन्य ज्ञान की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। मति आदि प्रथम चार शान सहायता की अपेक्षा रखते हैं क्योंकि वे क्षयोपशमजन्य है।
पांचों शानों में केवल मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ही मिथ्यादृष्टियों के होते हैं । अतएव इन तीनों शानों के कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान या विमंगज्ञान जैसे रूप होते हैं । मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान सम्यग्दृष्टियों के ही होते हैं । उनके मिथ्यारूप नहीं होते। सर्वज्ञता का इतिहास :
पालि साहित्य में निगण्ठ नातपुत्त के सर्वज्ञत्व अर्थात् केवलज्ञान की चर्चा १. प्रवचनसार मानाधिकार गापा ४६-५१, जपषवला, प्रथम माग, पृ.१७