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विष को जानता है, यह निश्चयात्मक है। अतः इसे संक्षयारमक नहीं कह समाते । "यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए" इस प्रकार सद्भूत पदार्थ की बोरकता हुमा ज्ञान 'ईहा है।ईहाशान के बाद मात्मा में ग्रहण शक्ति का हत्या अषिक विकास हो जाता है कि वह भाषा वादि विशेषताओंके द्वारा यह स्मार्च भान कर लेता है कि यह मनुष्य दक्षिणी ही है। इसी ज्ञानको 'वाय' का मात्र है। इसके बाद अवाय द्वारा गृहीत पदार्य को संस्कार के रूप में धारण कर बेगा ताकि कालान्तर में उसकी स्मृति हो सके, धारणा है । पदार्थज्ञान का यही कर है । मात वस्तु के शान में यह क्रम बड़ी द्रुतमति से चलता है ।
पूर्वोक्त अवग्रह शान दो प्रकार का होता है ज्यजनावग्रह और मावाह । ध्यञ्चन अर्थात् अव्यक्त अथवा अस्पष्ट शब्दादि पदार्थों का ज्ञान 'व्यञ्जनाकाह' कहलाता है । इसमें चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार इन्द्रियों द्वारा ही शान होता है । व्यक्त अथवा स्पष्ट शब्दादि विषयको ग्रहण करने वाला मान 'बर्षावग्रह' कहलाता है । यह पांचों इनियों और मन से उत्पन्न होता है। वैसे नयी मिट्टी का सकोरा पानी की दो-तीन बिन्दु गलने तक गीला नहीं होता पर लगातार जल बिन्दुओं के डालते रहने पर धीरे-धीरे वह गीला हो पाता है। उसी तरह व्यक्त (स्पष्ट) ग्रहण के पहले का अव्यक्त ज्ञान 'व्यज्जनावग्रह है और व्यक्तग्रहण 'अर्थावग्रह है। षवला आदि दिगम्बर प्रन्यों में उनका ससम कुछ भिन्न प्रकार से दिया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में भी कुछ अन्तर है। बवाह निर्णयात्मक है या अवाय, इस सन्दर्भ में दिगम्बर-श्वेताम्बर बापामा में मतभेद है । इसी प्रकार दर्शन और अवाह भी विवाद-ग्रस्त विषय है।
बहु, बहुविध आदि के प्रकार से मतिज्ञान के बारह भेद होते हैं और विस्तार से इन्हीं भेदों की संख्या ३३६ हो जाती है । श्रुतज्ञान के अनन्त भेद होते हैं। पर संक्षेप में उसके दो मंद है-अंगप्रविष्ट और अंगवाहप। उनका वर्णन हम साहित्य के प्रसंग में कर चुके हैं। अमितान और मनःपर्यवसान :
अवधिशान निमित्त के भेद से दो प्रकार का है-भवप्रत्यय मोर पुजा प्रत्यय । जो क्षयोयशम भवके निमित्त से होता है उससे होने वाले बवविज्ञानको
१. सर्वासिवि, ११८ की व्याख्या २.देखिये-पैनन्याय, पृ. १३३-१५२ ३. मन्दिसून (२६. गा. १८) में मतिनान के दो ने दिये गये है-शुनियर बार बत निश्रित । अश्रुत निषित के चार भेद हुए-जासटिकी मिलिजा गौर पारिणामिकी।