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यहाँ दर्शन का तात्पर्य है तत्त्वश्रता, दृष्टि अथवा आत्मविश्वास । जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इन्हीं तीनों तथ्यों पर आधारित है। यहाँ यह दृष्टव्य है कि इन तीनों तत्त्वों में सम्यक् विशेषण संयोजित है। इससे साधनों की निर्मलता की ओर संकेत किया गया है। साध्य की विशुद्धि साधनों की विशुद्धि पर ही बवलम्बित होती है।
उत्तराध्ययन में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि सम्यक्त्व रहित व्यक्ति को ज्ञान नहीं होता और ज्ञान बिना चारित्र के गुण नहीं होते । चारित विरहित म्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और बिना मुक्त हुए निर्वाण नहीं मिलता। तत्त्वार्य राणवातिक में अकलंक ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र के अविनाभावसम्बन्ध पर सुन्दर प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार मात्र रसायन के शान या माचरण मात्र से रसायन का फल रूप बारोग्य नहीं मिलता, पूर्णफल की प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास, ज्ञान, और उसका सेवन भावश्यक है ही, उसी प्रकार संसार-व्याधि की निवृत्ति भी तत्त्व-श्रवान, शान और चारित्र की समन्वित साधना से ही हो सकती है। अतः तीनों को समवेत अवस्था में ही मोक्षमार्ग मानना उचित है।
'अनन्ताः सामायिकसिद्धाः' वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। मान रूप आत्मा के तत्त्वश्रवान पूर्वक ही सामायिक-समताभाव कम चारित्र हो सकता है। सामायिक का तात्पर्य है- समस्त पाप-योगों से निवृत्त होकर बभेद, समता और वीतरागता में प्रतिष्ठित होना । कहा भी है
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाज्ञानिनां किया। धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पबगुलः ॥ १॥
संयोगमेवेह वदन्ति तज्जाः
न होक चक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पङ्ग श्च वने प्रविष्टी
तो संप्रयुक्ती नगरे प्रविष्टौ ।। यदि शान मात्र से मोक्ष माना जाय तो पूर्णज्ञान प्राप्ति के द्वितीय भग में ही मोक्ष हो जायेगा । एक क्षण भी पूर्णज्ञान के बाद संसार में ठहरना संभव नहीं हो सकेगा। उपदेश, तीर्थप्रवृत्ति बादि कुछ भी नहीं हो सकेंगे। यह संभव ही नहीं कि दीपक भी जल जाये बोर अंधेरा भी बना रहे। उसी १. नासिणस्स गाणं, नाणेण विणा न होति परवगुणा। बगुणिस्स नत्वि मोक्सो, नत्ति अमुल्लम्स निवाण ॥
चयवन, २८..