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पञ्चम परिवर्त
जन ज्ञान मीमांसा और मोर स्वरूप :
भान मीमांसा वस्तुतः दर्शनशास्त्र की ही एक अभिन्न शाखा है जिसमें माता-शय का सम्बन्ध, ज्ञान की प्रक्रिया, सीमायें, परिस्थितियां, भेद-प्रभेद, प्रामाणिकता, स्रोत आदि विषयों पर विचार किया जाता है। इन प्रश्नों का विवेचन ही ज्ञान मीमांसा का अभिधेय बनता है। इस विवेचन में बागमन, निगमन, संश्लेषण, विश्लेषण आदि जैसी दार्शनिक विषियों तो प्रयुक्त होती ही है, साथ ही ऐसा तटस्थ और उदार दृष्टिकोण भी अपेक्षित रहता है जिसमें स्वानुभव और ज्ञान का समन्वित रूप बापूरित हो। यहाँ वस्तुवाद, प्रत्ययवाद, अनुभववाद जैसे वादों को समीक्षात्मक दृष्टि से परखकर विशुरु सान-दर्शन और चारित्र में प्रतिष्ठित होकर चिन्तन प्रस्तुत किया जाता है।
ज्ञानशास्त्र का यह एक मूलभूत प्रश्न है कि ज्ञान की उत्पत्ति हमारे मन में किस प्रकार होती है? वह अजित है या जन्मजाती पारचात्य दार्शनिक क्षेत्र में इन्हीं प्रश्नों को लेकर अनुभववाद और बुद्धिवाद इन दो पिरोपी विचारधाराओं का उद्गम हुमा । समन्वय की दृष्टि से कान्ट का समीक्षावाद भी उल्लेखनीय है। अनुभववाद के प्रस्थापक जॉन लॉक के अनुसार समस्त मान का मूल जनक अनुभव ही है, वह जन्मजात नहीं होता। ज्ञान की प्राप्ति के लिए उसने मन, बाहय पदार्थ और मन के अन्तर प्रत्यय को बावश्यक बताया । बर्कले और हघूम ने इस अनुभववाद को और आगे बढ़ाया।
अनुभववाद के विरोध में बुद्धिवाद खड़ा हुआ। इसके मूल विचारक सुकरात प्लेटो और अफलातून थे। उन्होंने कहा था कि इन्द्रियजन्य ज्ञान बसत् एवं अस्थायी होता है। देकार्ते ने इस तथ्य की निर्णायिका के रूप में बुद्धि को माना । स्पिनोजा और लाइबनित्य ने इस दर्शन का विकास किया। बाधुनिक जर्मन दार्शनिक कान्ट ने इन दोनों मतों का समन्वय कर परीक्षावाद (criticism) की स्थापना की । उसके अनुसार ज्ञान की सामग्री अनुभव और बुधिदोनों से प्राप्त होती है। ज्ञान के लिए दोनों अनिवार्य तत्व हैं। बर्कले का प्रत्ययवाद, हघूम का संदेहवाद तपा बेडले का सहवासम्बोषिमानवाद भी मानमीमांसा से सम्बर है।