________________
भेद है-कोष, मान, माया और लोभ । ये चार मूल कषाय हैं और उनमें प्रत्येक के चार भेद हैंअनन्तानुबन्धि, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्यास्थानावरण तथा संज्वलन । नोकषाय (मनोवृत्तियाँ) के ९ मेद' हैं-हास्य, रति, मरति, शोक, भय, जुगुप्सा. स्त्रीवेद,
वेद और नपुंसकवेद । ५. आयु ४- नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देव । ६. नाम ४२- गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन,
संघात, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्म, मानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परषात, आतप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति, प्रस, स्थावर, वादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशस्कीति, अयशस्कीति, निर्माण
तथा तीर्थकरत्व । गोत्र २
उच्च और नीच । अन्तराय ५- दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ।।
इन पारिभाषिक शब्दों के स्पष्टीकरण के लिए तत्वार्य राजवातिक (८.५-१३) आदि ग्रन्थ दृष्टव्य हैं। विस्तार के भय से उसे यहाँ प्रस्तुत नही कर रहे हैं।
२. स्थितिबन्ध स्थितिबन्ध में कर्मों की स्थिति पर विचार किया जाता है कि कौन कर्म अधिक से अधिक कितने और कम से कम कितने समय तक जीव के साथ रहते हैं। मानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय तथा अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर प्रमाण है। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटि-कोटि सागर, चारित्रमोहनीय की चालीस कोटिकोटि सागर, आयु कर्म की तेतीस सागर और नाम कर्म तथा गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटि-कोटि सागर प्रमाण है। उनकी जयन्य स्थिति इस प्रकार है-शानावरणीय, दर्शनावरणीय, आयु तथा अन्तरायकर्म की जघन्य स्थिति अन्तमूहर्त, वेदनीय की बारह मुहूर्त तथा नाम और गोत्र कर्म की पाठ