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पर पिण्डाकार का नाश होता है । अनादि पारिणामिक स्वभाव से व्यय बौर उत्पाद नहीं होते किन्तु द्रव्य स्थित रहता है । जैसे पिण्ड और घट, दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का बना रहना । इस दृष्टि से जैन दर्शन सदसत् कार्यवादी है ।
बौद्धधर्म में रूप का लक्षण दिया गया है- उपचय, सन्तति, जरता और अनित्यता । उपचय एवं सन्तति उत्पत्ति का प्रतीक है, जरता स्थिति का प्रतीक है और अनित्यता भङ्ग का प्रतीक है । यहाँ सम्बद्ध वृद्धि को सन्तति कहा गया है जिसका सम्बन्ध उत्पत्ति के साथ अधिक है । उत्पत्ति के बाद निष्पन्न रूपों के निरुद्ध होने से पहले ४८ क्षुद्र क्षण मात्र स्थितिकाल को जीर्ण स्वभाव होने से जरता कहा जाता है । प्रत्येक क्षण में उत्पाद, स्थिति और भङ्ग नामक तीन क्षुद क्षण होते है । रूप का एक क्षण चित्तवीथि के १७ क्षणों के बराबर होता है । १७ क्षणों में भी क्षुद्र क्षण ५१ होते हैं जिनके बराबर रूप का एक क्षण होता है । इन ५१ क्षुद्र क्षणों मे से सर्वप्रथम उत्पादक्षण को और अन्तिम भङ्ग क्षण को निकाल देने पर चित्त के ४८ क्षुद्रक्षण के बराबर रूप की जरता का काल होता है । एक चित्तक्षण में ये उत्पाद-स्थितिभंग इतनी शीघ्रता पूर्वक प्रवृत्त होते है कि एक अच्छरा काल ( चुटकी बजाने या पलक मारने बराबर समय ) मे ये लाखों करोड़ों बार उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाते है ।" इन उत्पाद व्यय भंग स्वभावी रूपों को 'संस्कृत' कहा जाता है ।
संस्कृत पदार्थ में परिवर्तन की शीघ्रता अन्वय की भ्रान्ति पैदा करती है । उसे ही 'स्थायी' कह देते है- अन्वय वशात् । वस्तुतः प्राणी का जीवन विचार एक क्षण तक रहता है । उस क्षण के समाप्त होते ही प्राणी भी समाप्त हो जाता है ।" इसे 'भेदवाद' कहते है । वैभाषिक - सौत्रान्तिक इसे मानते हैं । क्षणभंगवाद उनका चरम सत्य है वे धर्मनैरात्म्य ( बाहघ पदार्थ क्षणिक और निरंश परमाणुओ का पुञ्ज है) और पुद्गलनैरात्म्य (अनात्मवाद) को मानते हैं । सारा व्यवहार सन्ततिवाद और संघातवाद पर आश्रित है । संस्कृति पदार्थ प्रतीत्यसमुत्पन्न और अनित्य है । जिस पदार्थ का समुत्पाद कारण पूर्वक होता है वह स्वतन्त्र नही । अतः माध्यात्मिक वादियों ने पदार्थ hat शून्यात्मक कहा है ।"
१. तत्त्वार्थवार्तिक, ५-३०.१ ३.
२. रूपस्स उपचयो सन्तति जरता अनिध्यता लवखण रूप नाम, अभिधम्म. ६.१५ ३. तननं विद्यारण तति, सम्बन्धा तति पुनप्पुन वा तति सन्तति, प. वी. पु. २४६. ४. एकच्छ रखखणे कोटि सतसहरस सहखा उपज्जित्वा निरुज्झति विम. म. पू. ३४ ५. विसुद्धिमृग, ८. १. चतुःशतकम्, ३४८.