________________
चतुर्य परिवर्त
जैन तत्त्व मीमांसा प्राचीन काल से ही व्यक्ति दार्शनिक समस्याओं में उलझा रहा है। उनकी समस्यायें अध्यात्मशास्त्रकी समस्यायें थी । वस्तु तत्त्व क्या है ? कार्यकारण सम्बन्ध क्या है ? आत्मा है कि नहीं ? ईश्वर है कि नहीं? आदि प्रश्न हर दार्शनिक के समक्ष प्रस्तुत हो जाते थे । बुद्धने ऐसे ही प्रश्नों को 'अव्याकृत' कहा था। इसी संदर्भ में प्रमाणशास्त्रीय और तर्कशास्त्रीय समस्यायें भी प्रादूभूत हुई जिनका विशेष सम्बन्ध ज्ञान से है । दर्शन के क्षेत्र में यह तत्व और ज्ञान, अनुभव और तर्क पर आधारित रहा है। उनका विश्लेषण कमी आगमन (Induction ) और कभी निगमन (Deduction) प्रणाली से किया गया। इन तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म को आचार और नीति तत्त्व के रूप में दर्शन और ज्ञान से अनुस्यूत कर दिया गया । अतः हमने यहाँ तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और आचार मीमांसा को लेकर जैन संस्कृति के स्वरूप और इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
जैन दर्शन की तत्त्व मीमांसा जीव और अजीव नामक दो प्रमुख तत्त्वों पर आधारित है। तत्त्वचिन्तन की भूमिका में पदार्थ अथवा द्रव्य का स्वरूप, आत्मा की व्याख्या और कर्म तत्त्व पर विशेष ध्यान दिया जाता है। आत्मा अथवा जीव जबतक पदार्थ के स्वरूप का सम्यक् ज्ञान नहीं कर पाता तबतक वह संसार-सागर में भटकता रहता है । इस भटकाव से विमुक्त होने के लिए यह अपेक्षित है कि व्यक्ति भेदविज्ञान प्राप्त करे । स्व-पर के स्वरूप के जाने बिना वह भेदविज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इस दिशा में तत्त्वों की व्याख्या, चिन्तन, मनन आदि जैसे साधन अधिक उपयोगी होते हैं ।
द्रव्य का स्वरूप परिणामी-नित्यत्व:
तत्त्वचिन्तन में द्रव्य का प्रमुख स्थान है । हर दर्शन ने इस पर किसी न किसी सीमा तक विचार किया है । पाणिनि ने 'द्रव्य' शब्द की सिद्धि तदित और कुदन्त प्रकरणों में की है । तद्धित प्रकरणों में दो व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं। प्रथम
१. जीवाणीव विहत्ती जोह पाणे शिवषिणवरमएणं ।
ते सग्णाणं मणियं मषियत्वं सम्बदरिसीहिं ॥ मोक्सपाहय ४१.