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कुछ ग्रन्थ प्रतिष्ठाओं से सम्बद्ध है । " प्रतिष्ठाकल्प" नाम के ऐसे अनेक ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं परन्तु उनमें से हेमचन्द्र, हस्तिमल्ल और हरिविजय सूरि के ही प्रतिष्ठाकल्प अभी तक प्रकाश में आये हैं। इनके अतिरिक्त वसुनन्दि का प्रतिष्ठासारसंग्रह व आशाधार का प्रतिष्ठा सारोद्धार भी महत्त्व पूर्ण ग्रन्थ हैं ।
जैनधर्म में मन्त्र-तन्त्र की भी परम्परा रही है। सूरिमंत्र जिनप्रभसूरि का सूरिमन्त्रबृहत्कल्प विवरण, सिंहतिलकसूरि (१३ वीं शती) का मंत्रराजरहस्य मल्लिवेण के भैरवपद्मावतीकल्प, कामचाण्डालिनीकल्प, सरस्वतीकल्प, विनयचन्द्रसूरि का दीपालिकाकल्प आदि मन्त्र-तन्त्रात्मक रचनायें प्रसिद्ध हैं । पंचमेरु सिद्धचक्रविधान, चतुविशति विधान आदि विधिपरक रचनायें भी मिलती है । विविध तीर्थकल्प को भी इसी में सम्मिलित किया जा सकता है जिसमें जिनप्रभसूरि ने जैन तीर्थो का ऐतिहासिक वर्णन किया है ।
५. पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य
पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य का सम्बन्ध जैनधर्म में मान्य महापुरुषों से आता है । इनमें उनके चरित, कर्मफल, लोकतत्त्व, दिव्यतस्त्व, आचारतत्व आदि का वर्णन किया जाता है। यहाँ तीर्थंकरों, चरितनायकों, साधकों अथवा राजाओं के जीवन चरित्र को काव्यात्मक आधार देकर उपस्थित किया गया है।
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र का कथानक सार्वदेशिक और सार्वकालिक रहा है। जैन काव्य धारा में भी उसकी अनेक परम्परायें सामने आयीं और उनमें काव्य लिखे गये । संस्कृत में लिखे काव्यों में रविषेण (वि. सं. ७३४) का पद्मपुराण अथवा पद्मचरित (१८०२३ श्लोक), जिनदास (१६ वीं शती), सोमसेन, धर्मकीर्ति, चन्द्रकीर्ति आदि विद्वानों के पद्मपुराण प्रसिद्ध हैं। महाभारत विषयक पौराणिक महाकाव्यों में जिनसेन का हरिवंशपुराण (शक सं. ७०५), देवप्रभसूरि (वि. सं. १२७० ) का पाण्डवचरित, सकलकीर्ति (१५ बीं शती) का हरिवंशपुराण, शुभचन्द्र ( वि. सं. १६०८), वादिचन्द्र (वि. सं. १६५४) व श्रीभूषण (वि. सं. १६५७) आदि के पाण्डवपुराण प्रमुख हैं ।
सठशलाका महापुरुषों से सम्बद्ध संस्कृत साहित्य परिमाण में कहीं और अधिक है । जिनसेन का आदिपुराण, गुणभद्र (८ वीं शती) का उत्तरसुराग (शक सं. ७७०), श्रीचन्द्र का पुराणसार (वि. सं. १०८०), दामनन्दि (११वीं शती) का पुराणसार संग्रह. मुनि मल्लिषेण का त्रिषष्टिमहापुराण (वि. सं. ११०४), बाशाधर का त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र (वि. सं. १२८२), हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (वि. सं. १२२८), बादि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इसी