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१२. विट्ठवाय - श्वेताम्बर परस्परा के अनुसार यह ग्रन्थ लुप्त हो गया है जबकि दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम आदि आगमिक ग्रन्थ इसी के भेदप्रभेदों पर आधारित रहे हैं । समवायांग में इसके पांच विभाग किये गये हैंपरिकर्म सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । इसमें विभिन्न दर्शनों की चर्चा रही होगी । पूर्वंगत विभाग के उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं । अनुयोग भी दो प्रकार के हैं - प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग | चूलिकायें कहीं बत्तीस और कहीं पांच बतायी गई हैं। उनका सम्बध मन्त्र-तन्त्रादि से रहा होगा । वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । यह एक विशालकाय ग्रन्थ रहा होगा ।
२. उपांग साहित्य
'वैदिक अंगोपांगों के समान जैनागम के भी उपर्युक्त बारह अंगों के बारह उपांग माने जाते हैं । परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो उपांगों के क्रम का अंगों के क्रम से कोई सम्बन्ध नहीं बैठता । लगभग १२ वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में उपांगों का वर्णन भी नहीं आता । इसलिए इन्हें उत्तरकालीन माना जाना चाहिए | ये उपांग इस प्रकार हैं ।
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१. उववाइय - में ४३ सूत्र हैं और उनमें साधकों का पुनर्जन्म कहाँ-कहाँ होता है, इसका वर्णन किया गया है । इसमें ७२ कलाओं और विभिन्न परिव्राजकों का वर्णन मिलता है ।
२. रायपसेणिय - में २१७ सूत्र हैं । प्रथम भाग में सूर्याभदेव का वर्णन है और द्वितीय भाग में केशी और प्रदेशी के बीच जीव-अजीव विषयक संवाद का वर्णन है । इसमें दर्शन, स्थापत्य, संगीत और नाट्यकला की विशिष्ट सामग्री सन्निहित है ।
३. जीवाभिगम - में ९ प्रकरण और २७२ सूत्र हैं जिनमें जीव और अजीव के भेद - प्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है । टीकाकार मलयगिरि ने इसे ठाणांग का उपांग माना है । इसमें अस्त्र, वस्त्र, धातु, भवन आदि के प्रकार दिये गये हैं ।
४. पण्णवणा-में ३४९ सूत्र हैं और उनमें जीव से संबन्ध रखने वाले ३६ पदों का प्रतिपादन है - प्रज्ञापना, स्थान, योनि, भाषा, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या आदि । इसके कर्ता आर्य श्यामाचार्य हैं जो महावीर परिनिर्वाण के ३७६ वर्ष 'बाद अवस्थित थे । इसे समवायांगसूत्र का उपांग माना गया है । वृक्ष, तृण, औषधियाँ, पंचेन्द्रियजीव, मनुष्य, साढ़े पच्चीस आर्य देशों शादि का वर्णन मिलता है ।
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