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शास्त्र जिन्हें गणवर तीयंकरों से मुनकर रचना करते हैं और 'आगम' का अर्थ है परम्परा से आया हुना । दोनों शब्दों का तात्पर्य लगभग समान है इसलिए कहीं-कहीं दोनों परम्परायें इन दोनों शब्दों का उपयोग करती हुई भी दिखाई देती हैं । इसी सन्दर्भ में अंग, परमागम, सूत्र, सिद्धान्त आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है । बौद्ध त्रिपिटक के समान जैनागम को भी आवायाँ ने 'गणिपिटक' कहा है। इन श्रुत अथवा आगमों के विषय का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया और उसे गौतम गणधर ने यथारीति ग्रन्थों में निबद्ध
किया।
यहां हम सुविधा की दृष्टि से प्राकत जैन साहित्य को निम्न भागों में विभक्त कर सकते हैं
i) आगम साहित्य ii) आगमिक व्याख्या साहि-य iii) कर्मसाहित्य iv) सिद्धान्त साहित्य v) आचार साहित्य iv) विधिविधान और भक्ति साहित्य vii) कथा साहित्य, और viii) लाक्षणिक साहित्य
१. आगम साहित्य प्राकृत जैनागम साहित्य की दो परम्पराओं से हम सुपरिचित हैं ही। दिगम्बर परम्परा तो उसे लुप्त मानती है परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में उसे अंग, उपांग, मूलसूब, छेदसूत्र और प्रकीर्णक के रूप में विभक्त किया गया है। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । इन द्वादशांगों की रचना पूर्व-ग्रन्थ परम्परा पर आधारित रही है।
i) अंग साहित्य : अंग साहित्य के पूर्वोक्त बारह भंद हैं जिनके कुल पदों का योग ४१५०२००० है । इनकी उल्लिखित विषय सामग्री और उपलब्ध विषय सामग्री में बहुत अन्तर है।
१. जैन साहित्य का इतिहासः पूर्वपीठिका, पृ. ५४३ २. भवरती सूत्र, २५३ ३. देखिये, म, महावीर और उनका चिन्तन-डॉ. मागचन्द्र जैन, बया.