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इस प्रकार १० क्रोडाकडी सागरोपम का अवसपिणीकाल व १० क्रोडाफोडी सागरोपम का उत्सर्पिणी काल मिल कर एक कालचक्र बनता है। समय क्षेत्र मे यह कालचक्र अनादि से घूम रहा है और अनन्त काल तक घूमता रहेगा।
जैसा कि प्रारम्भ मे सकेत किया गया था, जैन दर्शन मे काल का चिन्तन मुख्यतया कर्मबन्ध और उससे मुक्ति की प्रक्रिया को लेकर चला है। योग और कषाय के निमित्त से जोव के साथ कर्म पुद्गलो का बन्ध होता है। कर्म बन्ध की मन्दता और तीव्रता के आधार पर चित्त वृत्तियो मे उत्थान-पतन का क्रम चलता है। चित्त वृत्तियो का यह उतार-चढाव ऋमिक रूप से होता रहता है, अत वृत्तियो के उत्थान-पतन के क्रम को 'समय' कहा जा सकता है। इसी अर्थ मे सम्भवतः जैन दर्शन में 'समय' शब्द आत्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है । कषायो की आवृत्ति को 'पावलिका' के रूप में भी समझा जा सकता है। योग और कषाय के वशवर्ती होकर जीव अनन्त ससार मे भ्रमण करता रहता है । विषय-वासना के गुणनफल की स्थिति को असख्यात और अनन्त नाम देना समीचीन हो सकता है। योग की प्रवृत्ति को असख्यात और चित्त की प्रवृत्ति को अनन्त कहा जा सकता है । जीव के गुणस्थान के क्रम-विकास के सन्दर्भ में कालमानो के विविध रूपो का अध्ययन और अनुसंधान किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है।