________________
दूसरो को मारना न कि बचाना, दूसरो को गुलाम बनाना न कि गुलामी' से मुक्त करना, दूसरो को दबाना न कि उबारना । ऐसा वीर आवेगशील होने के कारण अधीर और व्याकुल होता है । वह अपने पर किसी क्रिया के प्रभाव को झेल नहीं पाता और भीतर ही भीतर सतप्त और त्रस्त बना रहता है । मनोविज्ञान की दृष्टि से ऐसा वीर सचमुच कायर होता है, कातर होता है, क्रोध, मान, माया और लोभ की आग मे निरतर दग्ध बना रहता है। बाहरी वैभव और विलास मे जीवित रहते हुए भी आन्तरिक चेतना और सवेदना की दृष्टि से वह मृतप्राय होता है। उसके चित्त के सस्कार कु ठित और सवेदना रहित बन जाते है ।
जैन दर्शन मे बहिर्मुखी वीर-भाव को आत्मा का स्वभाव न मानकर, मन का विकार और विभाव माना है। अन्तम खी वीर ही उसकी दृष्टि मे सच्चा वीर है। यह वीर बाहरी उत्तेजनाओ के प्रति प्रतिक्रियाशील नहीं होता । विषम परिस्थितियो के बीच भी वह प्रसन्नचित्त बना रहता है । वह सकटो का सामना दूसरो को दबाकर नही करता । उसकी दृष्टि मे सुख-दुख, सम्पत्ति-विपत्ति का कारण कही बाहर नही, उसके भीतर है । वह शरीर से सम्बन्धित उपसर्गों-परीषहो को समभावपूर्वक सहन करता है। उसके मन मे किसी के प्रति घृणा, द्वेष और प्रतिहिंसा का भाव नही होता । वह दूसरो का दमन करने के बजाय आत्मदमन करने लगता है । यह आत्म-दमन और आत्म-सयम ही सच्चा वीरत्व है । भगवान् महावीर ने कहा है--
अप्पाणमेव जुज्झहि, कि ते जुझण बज्झो । अप्पाणमेव अप्पाण, जइत्ता सुहमेहए ।'
आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी दुश्मनो के साथ युद्ध करने से तुझे क्या लाभ ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीतकर मनुष्य सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है। ,
जिन वीरो ने मानवीय रक्त बहाकर विजय यात्रा आरम्भ की, अन्त मे उन्हे मिला क्या ? सिकन्दर जैसे महान योद्धा भी खाली हाथ चले गये । वस्तुतः कोई किसी का स्वामी या नाथ नहीं है । 'उत्तराध्ययन सूत्र' के' 'महानिर्ग्रन्थीय' नामक २०वें अध्ययन मे अनाथी मुनि और राजा १-उत्तराध्ययन.. ६/३५