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काव्य-परम्परा को इन कवियो ने विभिन्न रूपो मे विकसित कर काव्यशास्त्रीय जगत मे एक क्राति सी मचा दी । दूसरे शब्दो मे यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध और मुक्तक के बीच काव्य-रूपो मे कई नये स्तर इन कवियो ने निर्मित किये।
जैन कवियो ने नवीन काव्य-रूपो के निर्माण के साथ-साथ प्रचलित काव्य-रूपो को नई भाव-भूमि और मौलिक अर्थवत्ता प्रदान की। इन सबमे उनकी व्यापक, उदार दृष्टि ही काम करती रही । उदाहरण के लिए वेलि, बाहरमासा, विवाहलो, रासो, चौपाई, सधि आदि काव्य रूपो के स्वरूप का अध्ययन किया जा सकता है। 'वेलि' सज्ञक काव्य डिंगल शैली मे सामान्यत वेलियो छद मे ही लिखा गया है पर जैन कवियो ने 'वेलि' काव्य को छन्द विशेप की सीमा से बाहर निकाल कर वस्तु और शिल्प दोनो दष्टि से व्यापकता प्रदान की। 'बारहमासा' काव्य ऋतु काव्य रहा है जिसमे नायिका एक-एक माह के क्रम से अपना विरह, प्रकृति के विभिन्न उपादानो के माध्यम से व्यक्त करती है । जैन कवियो ने वारह मासा की इस विरह-निवेदन-प्रणाली को प्राध्यात्मिक रूप देकर इसे शृगार क्षेत्र से बाहर निकालकर भक्ति और वैराग्य के क्षेत्र तक आगे बढाया। 'विवाहलो' संज्ञक काव्य मे सामान्यत नायक-नायिका के विवाह का वर्णन रहता है, जिसे 'व्याहलो' भी कहा जाता है । जैन कवियो ने इसमे नायक का किसी स्त्री से परिणय न दिखा कर सयम और दीक्षा कुमारी जैसी अमूर्त भावनाओ को परिणय के बधन मे बाधा । रासो, मधि और चौपाई जैसे काव्य रूपो को भी इसी प्रकार नया भाव-बोध दिया। 'रासो' यहाँ केवल युद्धपरक वीर काव्य का व्यजक न रह कर प्रेमपरक गेय काव्य का प्रतीक बन गया । 'सधि' शब्द अपभ्र श महाकाव्य के सर्ग का वाचक न रह कर विशिष्ट काव्य विधा का ही प्रतीक बन गया। 'चौपाई सज्ञक काव्य चौपाई छन्द मे ही वन्धा न रहा, वह जीवन की व्यापक चित्रण क्षमता का प्रतीक बनकर छन्द की रूढ कारा से मुक्त हो गया।
उपर्युक्त उदाहरणो से स्पष्ट है कि जैन कवियो ने एक ओर काव्य रूपो की परम्परा के धरातल को व्यापकता दी तो दूसरी ओर उसको वहिरग से अन्तरग की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर भी खीचा।
यहाँ यह भी स्मरणीय है कि जैन कवियो ने केवल पद्य के क्षेत्र मे ही नवीन काव्यरूप नही खडे किये वरन् गद्य के क्षेत्र मे भी कई नवीन काव्य