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कर, दूसरो को दे देना लोक धर्म है, पर अपनी आवश्यक वस्तुप्रो मे से कमी करके, दूसरो के लिये देना आत्म धर्म है। इस दूसरे रूप मे ही व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियो का विशेष नियमन कर पाता है ।
___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में जिन आर्थिक तत्त्वो का सगुम्फन है, उनकी आज के सन्दर्भ मे बडी प्रासगिकता है और धर्म तथा अर्थ की चेतना परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरे को पूरक है।