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दानशीलता, धनाढ्यता और व्यावसायिक कुशलता मे जैन धर्मावलम्बी सदा अग्रणी रहे हैं । ईमानदारी, विश्वस्तता और प्रामाणिकता के क्षेत्र मे भी ये प्रतिष्ठित रहे हैं। इस पृष्ठभूमि मे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जैन धर्म के आचार-विचारो ने उनकी व्यावसायिकता, प्रवन्धकुशलता और आर्थिक गतिविधियो को प्रेरित-प्रभावित किया है।
आधुनिक युग में महात्मा गाधी ने राजनीति और अर्थनीति के धरातल पर अहिंसात्मक सवेदना से प्रेरित होकर जो प्रयोग किये, उनमे जैन-दर्शन के प्रभावो को सुगमता से रेखाकित किया जा सकता है। आर्थिक क्षेत्र मे ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त, आवश्यकता से अधिक वस्तुओ का सचय न करना, शरीर-श्रम, गो-पालन, स्वाद-विजय, उपवास आदि पर बल इस दृष्टि से उल्लेखनीय है ।
जैन दर्शन का मूल लक्ष्य वीतराग भाव अर्थात् राग-द्वेष से रहित समभाव की स्थिति, प्राप्त करना है। जब तक हृदय मे या समाज मे विपम भाव बने रहते है, तब तक यह स्थिति प्राप्त नही की जा सकती। इस विषमता के कई स्तर हैं, जैसे सामाजिक विषमता, वैचारिक मतभेद आदि, पर इनमे प्रमुख है-आर्थिक विषमता आर्थिक वैपम्य की जड स्वार्थ है, और स्वार्थ के कारण ही मन मे कषाय भाव जागृत होते हैं और प्रवृत्तियाँ पापोन्मुख बनती है। लोभ और मोह पापो के मूल कहे गये हैं। इस युग के प्रसिद्ध अर्थवेत्ता और चिन्तक कार्ल मार्क्स ने भी सभी मघर्षों का मूल अर्थ-मोह बताया है। भगवान् महावीर ने इसे परिग्रह कहा है। यह अर्थ मोह या परिग्रह कैसे टूटे, इसके लिये जैन धर्म में मुख्यत, बारह व्रतो को व्यवस्था की गई है। समतावादी समाजरचना के लिये आवश्यक है कि न मन मे विषम भाव रहे और न समाज मे असमानता रहे। इसके लिये धार्मिक और आर्थिक दोनो स्तरो पर प्रयत्न अपेक्षित है । जैन दर्शन मे धार्मिक प्रेरणा से जो अर्थतन्त्र उभरा है, वह इस दिशा मे हमारा मार्ग-दर्शन कर सकता है। इस दृष्टि से निम्नलिखित मुख्य तत्त्वो को रेखाकित किया जा सकता है
१ श्रम की प्रतिष्ठा । २ आवश्यकताओ का स्वैच्छिक परिसीमन । ३ साधन-शुद्धि पर वल।। ४ अर्जन का विसर्जन ।