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करो, किसी को परिताप न दो और किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण न करो । इस दृष्टि से जो धर्म के तत्त्व है प्रकारान्तर से वे ही जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्व हैं ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ से ही अपने तत्कालीन सन्दर्भों मे सम्पृक्त रहा है । उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश मे राजनैतिक क्षितिज तक ही सीमित नही रही है। उसने स्वतन्त्रता और समानता जैसे जनतान्त्रिक मूल्यों को लोकभूमि मे प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से अहिसा अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे मूल्यवान सूत्र दिये है और वैयक्तिक तथा सामाजिक धरातल पर धर्म-सिद्धान्तो की मनोविज्ञान और समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है । इससे निश्चय ही सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र मे सास्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है ।
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