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न्यपहरण और सार्वजनीन समभाव से है । हमारे देश मे विविध धर्म और धाक नुयायी है। इन विविध धर्मों के अनुयायियो मे पारस्परिक सौहार्द, सम्मान और ऐक्य की भावना बनी रहे, सबको अपने-अपने ढग से उपासना करने और अपने-अपने धर्म का विकास करने का पूर्ण अवसर मिले, तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ भेद भाव या पक्षपात न हो इसी दृष्टि से धर्म निरपेक्षता का भाव हमारे सविधान का महत्त्वपूर्ण अग वना है । धर्म निरपेक्षता की इस प्रार्थभूमि के अभाव मे न स्वतन्त्रता टिक सकती है और न समानता और न लोक कल्याण की भावना पनप सकती है। जैन तीर्थड्रो ने सभ्यता के प्रारम्भ मे ही शायद यह तथ्य हृदयगम कर लिया था इसीलिए उनका सारा चिन्तन धर्म निरपेक्षता अर्थात् सार्वजनीन समभाव के रूप मे ही चला । इस सम्बन्ध मे निम्नलिखित तथ्य विशेष महत्त्वपूर्ण हैं -
(१) जैन तीर्थड्रो ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नही किया । जैन शब्द बाद का शब्द है । इसे समण (श्रमण), अर्हत और निर्ग्रन्थ धर्म कहा गया है । श्रमण शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियो के उपशमन का परिचायक है । अर्हत् शब्द भी गुरण वाचक है जिसने पूर्ण योग्यता-पूर्णता प्राप्त करली है वह है-अर्हत् । जिसने सब प्रकार की ग्रन्थियो से छुटकारा पा लिया है वह है निर्ग्रन्थ जिन्होने राग-द्वेष रूप-शत्रु आन्तरिक विकारो को जीत लिया है वे जिन कहे गये हैं और उनके अनुयायी जैन । इस प्रकार जैन धर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त जीवन आदर्शों और सार्वजनीन भावो का प्रतीक है जिनमे ससार के सभी प्राणियो के प्रति छात्मोपम्प मैत्री भाव निहित है।
(२) जैन धर्म मे जो नमस्कार मन्त्र है, उसमे किसी तीर्थङ्कर, प्राचार्य या गुरु का नाम लेकर वन्दना नहीं की गई है। उसमे पच परमेष्ठियो को नमन किया गया है-णमो अरिहताण, णमो सिद्धारण, णमो पायरियारण, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सन्त्रसाण । अर्थात् जिन्होने अपने शत्रुओ पर विजय प्राप्त करली है, उन अरिहन्तो को नमस्कार हो, जो ससार के जन्म-मरण के चक्र से छूटकर शुद्ध परमात्मा बन गये हैं उन सिद्धो को नमस्कार हो, जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि प्राचारो का स्वय पालन करते हैं और दूसरो से करवाते है उन आचार्यों को