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३ लोक कल्याण :- जैसा कि कहा जा चुका है कि महावीर ने संग्रह का निषेध नही किया है वल्कि आवश्यकता से अधिक सग्रह न करने को कहा है । इसके दो फलितार्थ हैं - एक तो यह कि व्यक्ति अपने लिये जितना आवश्यक हो उतना हो उत्पादन करे और निष्क्रिय वन जाय । दूसरा यह कि अपने लिए जितना आवश्यक हो उतना तो उत्पादन करे ही श्रीर दूसरो के लिये जो आवश्यक हो उसका भी उत्पादन करे । यह दूसरा अर्थ ही अभीष्ट है । जैन धर्म पुरुषार्थ प्रधान धर्म है प्रत वह व्यक्ति को निष्क्रिय व अकर्मण्य वनाने की शिक्षा नही देता । राष्ट्रीय उत्पादन मे व्यक्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका को जैन दर्शन स्वीकार करता है पर वह उत्पादन शोषण, जमाखोरी और श्रार्थिक विषमता का कारण न बने, इसका विवेक रखना श्रावश्यक है । सरकारी कानून - कायदे तो इस दृष्टि से समय-समय पर बनते ही रहते हैं पर जैन माधना मे व्रतनियम, तप-त्याग और दान-दया के माध्यम से इस पर नियन्त्रण रखने का विधान है । तपो मे वैयावृत्य अर्थात् सेवा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । इसी सेवा-भाव से धर्म का सामाजिक पक्ष उभरता है । जैन धर्मावलम्बियों ने शिक्षा, चिकित्सा, छात्रवृत्ति, विधवा सहायता आदि के रूप मे अनेक ट्रस्ट खडे कर राष्ट्र की सेवा की है । जैन शास्त्रो मे पैसा अर्थात् रुपयो के दान का विशेष महत्त्व नही है | यहा विशेष महत्त्व रहा है - आहार दान, ज्ञान दान, औपध दान और अभय दान का । स्वय भूखे रह कर दूसरो को भोजन कराना पुण्य का कार्य माना गया है । अनशन अर्थात् भूखा रहना, अपने प्राणो के प्रति मोह छोडना प्रथम तप कहा गया है पर दूसरो को भोजन, स्थान, वस्त्र आदि देना, उनके प्रति मन से शुभ प्रवृत्ति करना, वाणी से हित वचन बोलना और शरीर मे शुभ व्यापार करना तथा समाज सेवियो व लोक सेवको का ग्रादर-सत्कार करना भी पुण्य माना गया है । इसके विपरीत किसी का भोजन - पानी से विच्छेद कराना - भत्तपाणवुच्छए, अतिचार, पाप माना गया है ।
महावीर ने स्पष्ट कहा है- जैसे जीवित रहने का हमे अधिकार है वैसे ही अन्य प्राणियो को भी । जीवन का विकास सघर्ष पर नही सहयोग पर ही आधारित है । जो प्राणी जितना अधिक उन्नत और प्रबुद्ध है, उसमे उसी अनुपात मे सहयोग और त्यागवृत्ति का विकास देखा जाता है । मनुष्य सभी प्राणियो मे श्रेष्ठ है । इग नाते दूसरो के
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