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चेतना का कोई महत्त्व नही रह गया था। महावीर ने ईश्वर को इतना व्यापक बना दिया कि कोई भी प्रात्म-साधक ईश्वर को प्राप्त ही नही करे वरन् स्वयं ही ईश्वर बन जाय । इस भावना ने असहाय, निष्क्रिय जनता के हृदय मे शक्ति, आत्म-विश्वास और आत्म-बल का तेज भरा। वह सारे आवरणो को भेद कर, एकबारगी उठ खडी हुई । अब उसे ईश्वर-प्राप्ति के लिए परमुखापेक्षी बन कर नही रहना पडा। उसे लगा कि साधक भी वही है और साध्य भी वही है। ज्यो-ज्यो साधक तप, सयम और अहिंसा को आत्मसात करता जायगा त्यो-त्यो वह साध्य के रूप में परिवर्तित होता जायगा। इस प्रकार धर्म के क्षेत्र से दलालो और मध्यस्थो को बाहर निकाल कर, महावीर ने सही पुरुषार्थमूलक उपासना पद्धति का सूत्रपात किया जिसका केन्द्र स्वय मनुष्य था ।
सामाजिक क्रान्ति
महावीर यह अच्छी तरह जानते थे कि धार्मिक क्रान्ति के फलस्वरूप जो नयी जीवन-दृष्टि मिलेगी उसका क्रियान्वयन करने के लिए समाज मे प्रचलित रूढ मूल्यो को भी बदलना पडेगा। इसी सन्दर्म मे महावीर ने सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। महावीर ने देखा कि समाज मे दो वर्ग है-एक कुलीन वर्ग जो कि शोषक है, दूसरा निम्न वर्ग जिसका कि शोषण किया जा रहा है। इसे रोकना होगा। इसके लिए उन्होने अपरिग्रह-दर्शन की विचारधारा रखी, जिसकी भित्ति पर आगे चल कर आर्थिक क्रान्ति हुई । उस समय समाज मे वर्ण-भेद अपने उभार पर था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र की जो अवतारणा कभी कर्म के आधार पर सामाजिक सुधार के लिए, श्रम विभाजन को ध्यान में रखकर की गई थी, वह आते-आते रूढिग्रस्त हो गई और उसका प्राधार अव जन्म रह गया । जन्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाने लगा। फल यह हुआ कि शूद्रो की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। नारी जाति की भी यही स्थिति थी। शूद्रो की और नारी जाति की इस दयनीय अवस्था के रहते हुए धार्मिक-क्षेत्र मे प्रवर्तित क्रान्ति का कोई महत्त्व नही था । अत. महावीर ने बडी दृढता और निश्चितता के साथ शद्रो और नारी जाति को अपने धर्म मे दीक्षित किया और यह घोषणा की कि जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि नही होता, कर्म से ही सब होता है । उन्होने चाडाल (हरिकेशी) के लिए, कुम्भकार