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मे उसे जो विरासत मिली है वह जन्मजन्मान्तर तक प्रभावित-प्रकाशितः करने वाली है। इस विरासत को समझने की बडी आवश्यकता है। परस्थूल इन्द्रियो और बाहरी ज्ञान से इसे समझा नही जा सकता। इसके लिए प्रज्ञा व सवेदना के सूक्ष्म स्तरो को जागृत करने की आवश्यकता है। जो एक बार प्रज्ञा जागृत हो गई तो वह देहरी के दीपक की भांति अन्तरबाहर को एक साथ प्रकाशित कर देगी। युवा वर्ग के लिए. इससे बढ़कर और कोई धर्म नही हो सकता।
वर्तमान परिस्थितियां और आध्यात्मिकता का विकास '
मैं इस बात पर विशेष बल देना चाहता हूँ कि आज की परिस्थितियां धार्मिकता-आध्यात्मिकता की प्रतिगामी होकर भी उसके विकास मे अधिक सहयोगी बन सकती हैं। आज का युग विज्ञान का युग है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण, प्रयोग, परीक्षरण, ताकिकता और निरीक्षण पर अधिक बल देता है। अनुभव और बुद्धि की कसौटी पर जो तत्त्व खरा उतर आता है उसे क्या भौतिक क्या आत्मिक, क्या पूर्व, क्या पश्चिम,, सभी अपना लेते हैं और वह किसी क्षेत्र विशेष या व्यक्ति विशेष की छाप बनकर नहीं रहे, जाता। यदि धार्मिकता-याध्यामिकता किसी प्रकार-विज्ञान से जुड़ जाय तो वह हमारे लिए मात्र पारलौकिक उपलब्धि न रहकर इस जीवन की आवश्यकता बन जायेगा।
इस दिशा मे कुछ प्रयास वर्तमान परिस्थितियों में होते दिखाई देने लगे हैं। धर्म अब तक परम्परावादियो और धर्माचार्यों या मठाधीशो की. रूढ वस्तु बनकर उसी में लम्बे समय तक जकड़ा रहा। मध्य युग मे धर्म के नाम पर अमानुषिक अत्याचार भी हुए। वह किसी विशेष जाति, कुल या सस्कार से ही बधा रहा। कबीर, नानक आदि सन्तों ने इसे सकुचित परम्परा कहकर इसके विरुद्ध आवाज बुलन्द की, उसका कुछ तात्कालिक प्रभाव भी पडा, पर कुछ मिलाकर चिन्तन की दिशा में कोई आमूलचूल. परिवर्तन नही हुआ । पर आधुनिक युग के वैज्ञानिक चिन्तन और परीक्षण ने धर्म के नाम पर होने वाले बाह्य क्रियाकाण्डों, अत्याचारो और उन्मादकारी प्रवृत्तियो के विरुद्ध जनमानस को सघर्षशील.बना दिया है। जैन दर्शन के इस तथ्य को आज के वैज्ञानिक मानवने (चाहे हम उसे पारिभाषिक अर्थ में आध्यात्मिक मानव न मानें)मान्यता दे दी है कि मनुष्य स्वाधीन है, किसी देवी-देवता के अधीन नही। वहीं अपने अंति'