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धर्म : सीमा और शक्ति
सामान्यतः यह माना जाता है कि धर्म बुजुर्गों के लिए है। युवा वर्ग का उससे क्या सम्बन्ध ? पर यह धारणा भ्रामक है । धर्म ससार से पलायन, कर्त्तव्य से उदासीनता या सेवा निवृत्ति का परिणाम नही है । वस्तुत. धर्म कर्त्तव्यपालन, सेवापरायणता और कर्म क्षेत्र मे पूरे उत्माह व पराक्रम के साथ जुटे रहने मे है । इस दृष्टि से ही धर्म को पुरुषार्थ माना गया है । 'दशवैकालिक' सूत्र मे कहा गया है
जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्ढई 1 जाविंदिया न हायन्ति, ताव धम्म समायरे ||८||३६||
अर्थात् जब तक बुढापा शरीर को कमजोर नही बनाता, जब तक व्याधि शरीर को घेर नही लेती, और जब तक इन्द्रियाँ शक्तिहीन होकर शिथिल नही हो जाती इससे पहले धर्म का प्राचरण कर लेना चाहिये, क्योकि उपर्युक्त अगो मे से किसी भी प्रग की शक्ति क्षीण हो जाने पर फिर यथावत् धर्म का आचरण नही हो सकता है । इस कथन से स्पष्ट है कि धर्म के लिए स्वस्थ और सुदृढ तन-मन की श्रावश्यकता है और यह युवावस्था मे ही विशेष रूप से सम्भव है । दूसरे शब्दो मे युवावस्था ही धर्माचरण के लिए विशेष उपयुक्त और अनुकूल है ।
जो लोग युवावस्था को धर्माचरण के लिए उपयुक्त नही मानते, वे लोग युवावस्था की उपादेयता और सार्थकता को शायद नही समझते । युवावस्था शक्ति और सामर्थ्य, पुरुषार्थ और पराक्रम तथा उमग और उत्साह की अवस्था है । यदि इसका उपयोग सत्कार्यों और सही दिशा मे
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