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सूक्ष्म और वलशाली बन गये हैं, उन्हें वशवर्ती बनाने के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक है।
ध्यान-साधना आध्यात्मिक ऊर्जा का अखण्ड स्त्रोत है। वह शक्ति के सचय, संवर्धन एव रक्षण मे सहायक है । भौतिक विज्ञान में ऊर्जा का बड़ा महत्त्व है । वजन को नीचे से ऊपर उठाने मे जिस शक्ति का उपयोग किया जाता है, वह ऊर्जा है। किसी निकाय मे परिवर्तन लाकर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है। परिवर्तन लाने के लिए भी कर्जा का उपयोग जरूरी है । उदाहरण के लिए पानी को ले । पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से मिलकर बना है । जव इन दोनो को अलग-अलग कर दिया जाता है तो उनसे ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।
ऊर्जा का यह सिद्धान्त आध्यात्मिक क्षेत्र मे भी लागू होता है । यहाँ ऊर्जा एक प्रकार की जीवनी शक्ति है। जब तक व्यक्ति शरीर और आत्मा के निकाय को अलग-अलग करके देखने की दृष्टि और अनुभूति विकसित नहीं कर पाता तब तक उसमे वास्तविक ऊर्जा-जीवनी-शक्ति स्फुरित नहीं हो पाती, ऐसी ऊर्जा जो उसकी चेतना को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी बना दे। ऊर्जा का मूल केन्द्र नाभि है। नाभि स्थित चेतना अधोमुखी भी हो सकती है और ऊर्ध्वमुखी भी । ऊर्जा का कार्य नाभि स्थित चेतना को ऊपर उठाना है । इस कार्य मे जो ऊर्जा उपयोग की जाती है उसकी प्राप्ति ग्रथि-भेदन और ध्यान-साधना से ही सम्भव है।
भौतिक जगत् मे आज ऊर्जा का सकट बना हुआ है। ऊर्जा के जो साधन-कोयला, तेल, यूरेनियम आदि हैं, वे तेजी से कम होते जा रहे हैं । लाखो वर्षो की रासायनिक प्रक्रिया के फलस्वरूप जो यह निधि पृथ्वी के गर्भ मे सचित हुई है, विगत वर्षों मे वह तेजी से उपयोग मे आती जा रही है । वैज्ञानिको का अनुमान है कि यदि इसी गति से इस ऊर्जा का उपयोग होता रहा तो आने वाले २०० वर्षों मे यह ऊर्जा-निधि समाप्त हो जावेगी और तव मानव सभ्यता का भविष्य क्या होगा, यह चिन्तनीय है। इसलिए वैज्ञानिक ऊर्जा के नये-नये स्त्रोत ढूंढने मे चेप्टारत हैं।
आध्यात्मिक क्षेत्र मे भी ऊर्जा प्राप्त करने के नये-नये प्रयोग आवश्यक है। हमारे विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान, तप, त्याग, व्रत, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय, ध्यान आदि के विधान इसी निमित्त हैं। आज कठिनाई यह है