________________
है। जब पश्चिमी गप्ट का मानम उमे अपना लेता है या उसकी महत्ताउपयोगिता प्रकट कर देता है तब कही जाकर हम उसे अपनाने का प्रयत्न करते हैं पीर अपने ही घर मे 'प्रवामी' में लगते है । 'व्यान' भी इस मदर्भ में कटा हुया नही है । पश्चिम में जब 'हरे राम हरे कृष्ण' की धुन लगी नव कही जाकर हमे अपने 'ध्यान-योग' की गरिमा और आवश्यक्ता का बोध हुआ।
ध्यान के प्रति पश्चिमी प्राकर्षण
यह बोध स्वागत योग्य है क्योंकि इसके द्वारा हमे विलुप्त होती हई ध्यान-माधना की यन्त मलिला की फिर में पुनर्जीवित करने का यवमर मिला है। पर जिन माध्यम से यह 'बोध' हुआ है, उमके कई खतरे भी हैं । पहला पतरा तो यह कि हम ध्यान की मूल चेतना को भूलकर कही इमे फैशन के रूप मे ही न ग्रहण करलें । टूमरा यह कि हम इसे केवल न्द मनोविज्ञान के घगतल पर ही स्वीकार करके न रह जाय और इस वस्तु या विचार को मन के ममायोजन (Adjustment) तक ही सीमित करदें और तीमग यह कि हम वैज्ञानिक चिन्ता-धाग को छोडकर कहीं मध्ययुगीन सस्कागे मे फिर न वन्ध जाय ।
ऊपर जिन पतरों की चर्चा की गई है वे निराधार नहीं हैं। उनके पीछे आधार है । 'ध्यान' के सम्बन्ध में जो पश्चिम की हवा चली है वह मांग के अतिरेक की प्रतिक्रिया की परिणति है, आत्मा के स्वभाव में रमण करने की महज वृत्ति नही । भौतिक ऐश्वर्य मे इवे पश्चिम के मानव के लिए वह भौतिक यन्त्रणामो मे मुक्ति का माधन है, इन्द्रियभोग के अतिरेक की थकान की विधान्ति है, मानसिक तनाव और दैनन्दिन जीवन की यापावापी में बचने का रास्ता है । ध्यान के प्रति उसकी ललक भौतिक पदार्थों की चरम सतृप्ति (मत्रास) का परिणाम है, उसका लक्ष्य परमानद या निर्वाण प्राप्ति नहीं है । उमे वह णारीरिक और मानसिक स्तर तक ही ममझ पा रहा है। उसके प्रागे आत्मिक स्तर तक अभी उसकी पहुँच
नहीं है। पर हमारे यहाँ ध्यान योग की साधना भोग की प्रतिक्रिया का - फल नहीं है । वह चरस, गाजा का विकल्प नहीं है और न है कोरा मन
का बैलामिक उपकरण । उमके द्वारा प्रात्मा के स्वभाव को पहचान कर उसमे रमण करने की चाह जागृत की जाती है, चित्तवृत्ति का निरोध