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ववित्तियो को अन्तर्मुखी बनाना, अपने मनोवेगो पर नियन्त्रण करना, मन को अशुभ प्रवृत्ति से हटाकर शुभ प्रवृत्ति मे लीन करना, वाणी पर अकुश लगाना और यतना (विवेक) पूर्वक कार्य करना। इस प्रकार संयमी और अनुशासित बनने के परिणाम से साधक अनाश्रवी वनता है, अर्थात् आते हुए उसके कर्मों का निरोध होता है।
तप का अर्थ है-आत्म शुद्धि, वह साधना है जिसके द्वारा सचित कर्म नप्ट हो जायें। विविध प्रकार के वाह्य और आभ्यतर तपो से व्यक्ति मे सहनशीलता, क्षमा, समता और अनासक्त भावना का विकास होता है। फलस्वस्प व्यक्ति अन्तर्मुखी वनकर कर्मों की निर्जरा करता है। जो व्यक्ति सयम और तप के द्वारा आत्मानुशासन नही करता उसे राग और द्वेप के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। असामाजिक, अनैतिक और अन्य अपराधो के कारण उसे कानून के तहत दण्ड भोगना पडता है । यह दण्ड कारागृह से लेकर फासी तक हो सकता है । इसीलिये ससार के प्राणियो को मावचेत करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है
वर मे अप्पा दतो, सजमेण तवेण य । माह परेहिं दम्मतो, वधणेहि वहेहि य ।।'
अनुशासन का शिक्षा के साथ गहरा सम्बन्ध है। शिक्षा व्यक्ति को सस्कार सम्पन्न बनाकर उसकी विकृत्तियो को दूर करती है। पर आज शिक्षा का सम्बन्ध जीवन-निर्माण से कट कर जीवन-निर्वाह से जुड़ गया है । अत शिक्षा के केन्द्र मे चित्त शुद्धि न रहकर वित्त की उपलब्धि प्रतिष्ठित हो गई है । जब-जब वित्त की ओर ध्यान रहेगा, तव-तव चित्त चचल और अस्थिर होगा। चित्त की चचलता और अस्थिरता मे अनशासन कायम नही रह सकता। यही कारण है कि ग्राज के शिक्षा केन्द्र विश्वविद्यालय और महाविद्यालय रचनात्मक शक्तियो के विकास की वजाय विध्वसात्मक शक्तियो के केन्द्र बने हुए है। जव शिक्षा के केन्द्र मे चित्त-शुद्धि का लक्ष्य रहेगा तव ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप परस्पर जुडेंगे । इन चारो को जोडने का काम अध्ययन से सभव नही है, यह सम्भव है-स्वाध्याय मे । स्वाध्याय का अर्थ है-अपने आपका अध्ययन, अपने द्वारा अपना अध्ययन । इसमे व्यक्ति यात्रिक नही, हार्दिक बनता १-उत्तराध्ययन सूत्र १/१६
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