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तत्त्वो का पोषण करना (असईजणपोसणियाकम्मे) आदि कार्यों को इसमे लिया जा सकता है।
वर्तमान युग मे युद्ध और हिंसा का एक प्रमुख कारण वैचारिक सघर्ष है । इसके समाधान के लिये भगवान् महावीर ने वैचारिक सहिष्णुता के रूप मे अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का उपदेश दिया। उन्होने कहाजगत् मे जीव अनन्त है और उनमें प्रात्मगत समानता होते हुए भी सस्कार, कर्म और बाह्य परिस्थितियो आदि अनेक कारणो से उनके विचारो मे विभिन्नता होना स्वाभाविक है। अलग-अलग जीवो की बात छोडिये, एक ही मनुष्य मे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अलग-अलग विचार उत्पन्न होते रहते हैं। इस विचारगत विषमता मे समता स्थापित करने की दृष्टि से महावीर ने कहा-"प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है। द्रव्य मे उत्पाद और व्यय होने वाली अवस्थाप्रो को पर्याय कहा गया है । गुण कभी नष्ट नहीं होते और न अपने स्वभाव को वदलते है, किन्तु पर्यायो के द्वारा अवस्था से अवस्थान्तर होते हुये सदैव स्थिर बने रहते है। ऐसी स्थिति में किसी वस्तु की एक अवस्था को देखकर उसे ही सत्य मान लेना और उस पर अडे रहना हठवादिता या दुराग्रह है। एकान्त दृष्टि से किसी वस्तु विशेप का समग्न ज्ञान नहीं किया जा सकता। सापेक्ष दृष्टि से, अपेक्षा विशेप से देखने पर ही उसका सही व सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण के आधार पर भगवान महावीर ने जीव, अजीव, लोक, द्रव्य आदि की नित्यता-अनित्यता, द्वैत-अद्वैत, अस्तित्व-नास्तित्व जैसी विकट दार्शनिक पहेलियो को सरलतापूर्वक सुलझाया।
महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिये उसकी स्वतन्त्र विचार चेतना भी है । अत जैसा तुम सोचते हो, एक मात्र वही सत्य नहीं है । दूसरे जो सोचते है उसमे भी सत्य का अश निहित है । अतः पूर्ण सत्य का साक्षात्कार करने के लिये इतर लोगो के सोचे हुये, अनुभव किये हुये, सत्याशो को भी महत्त्व दो। उनको समझो, परखो और उसके आलोक मे अपने सत्य का परीक्षण करो। इससे न केवल तुम्हे उस सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी भूलो के प्रति सुधार करने का अवसर भी मिलेगा । इस दृष्टिकोण से वर्तमान युग की पूजीवादी-साम्यवादी, जनतत्रवादी-अधिनायकवादी, व्यक्तिवादी-समाजवादी विचारधारानो को