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जैन-दर्शन
भी श्रुतकेवली के ही होता है । तथा ग्यारहवें और बारहवें गुण स्थान में होता है ।
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इन दोनों शुक्लध्यानों में से पहले शुक्लध्यान में संक्रमण होता रहता है | किसी एक ही पदार्थ का चितवन करते समय भी कभी मन से चितवन होता है, फिर मन बदल कर वही पदार्थ वचन वा काय से चिंतवन में आता है । इस प्रकार योगों का संक्रमण होता है तथा शब्द और अर्थ दोनों का संक्रमण होता है । एक शब्द छोडकर दूसरे शब्द से चितवन होने लगता है फिर अन्य किसी शब्द से होने लगता है । इसी प्रकार अर्थ में भी संक्रमण होता है । यह सब संक्रमण पहले शुक्लध्यान में ही होता है । दूसरे में किसी प्रकार का संक्रमण नहीं होता । तथा दोनों ही ध्यान श्रुतकेवली केही होते हैं ।
सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती - जिस ध्यान में चितवन की क्रिया अत्यंत सूक्ष्म हो उसको सूक्ष्म - क्रिया-प्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं । यह तेरहवें गुणस्थान में होता है तथा काय योग से ही होता है । इस गुणस्थान में चितवन अत्यंत सूक्ष्म रूप से होता है परंतु कर्मों की निर्जरा बराबर होती रहती है और वह निर्जरा बिना ध्यान के • नहीं होती । इसलिये केवली भगवान के उपचार से ध्यान माना जाता है तथा केवलज्ञानी के ही होता है ।
व्युपरत क्रियानिवृत्ति - इस ध्यान में कोई किसी प्रकारकी क्रिया नहीं होती । आस्रव बंध सब बंद हो जाता है । यथाख्यात चारित्र