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जैन-दर्शन प्रकार का ज्ञान होना, जहां जहां धूआ रहता है वहां वहां अग्नि . अवश्य रहती है-इस प्रकार विचार करना और धूआ देखकर अग्निको जान लेना आदि सब मतिज्ञान है।
इस मतिज्ञान के चार भेद हैं। अवग्रह, ईहा, आवाय और धारणा । यह मतिज्ञान दर्शन पूर्वक होता है। सबसे पहले किसी भी इन्द्रिय से पदार्थका दर्शन होता है । फिर यह.अमुक पदार्थ है; ऐसा ज्ञान होता है। ऐसे ज्ञानको अवग्रह कहते हैं । इसके अनंतर उस पदार्थ को विशेप जानने की इच्छा होती है-इसको ईहा ज्ञान कहते हैं। तदनंतर उसका निश्चय हो जाता है-यह मनुष्य ही है। इस प्रकार के ज्ञान को पावाय कहते हैं तथा उसको कालांतर में भी स्मरण रखना-भूलना नहीं इसको धारणा कहते हैं । ये चारों प्रकार के ज्ञान पांचों इन्द्रियों से तथा मन से होते हैं । इसलिये इसके चौवीस भेद हो जाते हैं। तथा यह चौवीस प्रकारका ज्ञान बहुत पदार्थोका होता है, अनेक प्रकारके पदार्थोंका होता है, एक पदार्थका भी होता है, एक प्रकार के पदार्थों का भी होता है, शीव भी होता है, देर से भी होता है, प्रकट पदार्थका भी होता है, अप्रकट पदार्थ का भी होता है, किसी के कहने पर भी होता है, विना कहे, कहने से पहले अनुमान से हो जाता है, निश्चित पदार्थों का भी होता है और अनिश्चित रूप पदार्थों का भी होता है। इस • प्रकार.बारह प्रकार के पदार्थों का होता है। इसलिये इस मतिज्ञान के दौसौ अठासा भेद हो जाते हैं । यह सब व्यक्त पदार्थोंका ज्ञान होता है।