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जैन-दर्शन हो जाता है, अपने आत्मा के शुद्ध गुणों में अनुराग करने लगता है, उन गुणों को प्रकट करने का प्रयत्न करता रहता है और इस प्रकार वह मोक्ष मार्ग में लग जाता है । ऐसा पुरुप दो चार पाठ भव में ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
सम्यग्दर्शन के प्रकट होने पर सम्यग्दृष्टी आत्मा समस्त पापा से डरता रहता है । अशुभ कर्मोंका बंध करने वाले पाप या संक्लेश परिणाम कभी नहीं करता; क्रोधादिक कपाय भी उसके अत्यंत मंद हो जाते हैं। इसीलिये वह मरकर न तो नरकमें जा सकता है
और न तियेच गति में जा सकता है । देवों में भी भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिपी देवों में उत्पन्न नहीं होता। वैमानिक उत्तम देवों में ही उत्पन्न होता है । यदि मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है तो भी स्त्री व नपुंसक नहीं होता, नीच कुल में उत्पन्न नहीं होता, विकृत शरीर धारण नहीं करता और न अल्प आयुवाला होता है । सम्यग्बष्टी पुरुप उत्तम देव या उत्तम कुलीन मनुष्य ही होता है तथा मनुष्य पर्याय में सम्यक् चारित्र धारणकर इन्द्र चक्रवर्ती आदिके उत्तम सुखों का अनुभव करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
यहां पर हम सम्यग्दर्शन के मुख्य भेद और बतला.देना चाहते हैं । यों तो इस सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हैं तथापि मुख्यतया तीन भेद कहलाते हैं ! एक उपशम सम्यग्दर्शन, दूसरा क्षायिक
सम्यग्दर्शन और तीसराक्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन । पहले कह चुके _हैं कि आत्मा के इस सम्यग्दर्शन रूप गुणको आवरण करने वाली